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________________ पाठ १४-शुद्धनय व विवक्षिप्तकदेश शुद्धनिश्चयनय (४८) विवक्षितकदेश शुद्ध निश्चयलयमें विवक्षित वस्तुको युद्ध स्वरूप में ही निखारा जाता है, यस्तुको विकारों से पृथक् निरखा जाता है। जो विकार होते हैं उन्हें चूकि उपादान ही स्वयं निमित्त होकर नहीं प्रकट करता है, निमितके सान्निध्य में ही प्रकट हो पाते हैं, अतः उन विकारोंको निमित्तस्वामिक बताकर वस्तुको शुद्धस्वरूप में ही दिखाना इस नयका काम है, जैसे जीवके विकारपरिधामनोंको पौदालिक जताना द विकारोंसे पृथक जीवको निरखना। व्यवहारनयको गोणकर अर्थात भेदविधिसे जामनेका उपयोग न करके निश्चयनको मुख्य कर माने अभेदविधिसे जाम में परनशुनियनय तक, यि यह भी स्वभावका एकका विकल्प रहा उससे भी अतिक्रान्त होकर स्वानुभवके निकट होते हैं तब संकल्पविकल्पको ध्वस्त करता हुआ शुद्धनय उक्ति होता है और उसके फल में प्रमाणनयनिक्षेपके विकल्पसे अतिक्रान्त होकर सुनायं प्रमाणस्वरूप हो जाता है। यह शानस्थिति (४६) शुद्धनय है । शुद्धनयके प्रकार नहीं हैं, वह तो स्वयं शुद्धनय है। नहीं तो नय विकल्पसे अतिक्राम्त अखण्ड अन्तस्तत्त्वका अभेद दर्शन है। (ए) वहिस्तत्वके निषेध द्वारा शद्ध तत्वका परिचय कराना प्रतिषेधक सुद्धनय है, जैसे जीव कमसे अबर है आदि परिचय। पाठ १५–व्यवहारनयके प्रकार भेदविधिसे वस्तु के जाननेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं। विधिकी दृष्टि से कई द्रव्याथिकनय व्यबहा रनथ हो जाते हैं और कई पायाथिकनय व्यवहारमय हो जाते हैं । कई निश्यमनय भी उससे अधिक अन्तष्टि होनेपर उसको तुलना में व्यवहारमय हो जाते हैं । सब ही प्रकारके व्यवहारनयों के नाम इस प्रकार है-- । (५०) परमशुद्ध भेदविषयी ध्यबहारनन अथवा भेदकल्पनासापेक्ष बस ब्याथिकनय, जैसे आत्माके ज्ञान हैदर्शन चारित्र है आदि परिचय । (५१) प्राद भेदविषयी दश्याथिक या पाइसक्ष्म ऋजसव केवल ज्ञान, अनन्त आनन्त है आदि का परिचय (५२) अशुद्धपर्याय विषयी व्यवहारनय या अशुद्ध सूक्ष्म ऋजूसूत्रनय, जैसे जीव के कोध है, मान है आदि । (५३) उपाधिसापेक्ष अमुख द्रव्यायिकनम, जैसे कर्मोदय विपाकके सान्निध्य में जीवके विकाररूप परिणमनेका परिचय । (५४) उत्पादव्ययसापेक्ष असद्धाद्रव्याधिक, जैसे द्रव्य उत्पादम्पयनोध्ययुक्त है. यों त्रितययुक्त द्रव्य को निरखता (५५) अशुद्ध स्थूल ऋजुसूत्रन्य, जैसे मर मारक, तियं च, देव आदि विभावदस्यध्यान पर्याय निरखना । (५६) गद्ध स्थूल सूत्रनय, जैसे चरम परीरसे किषित् न्यून आकार वाला सिवपर्याय जानना । (५७) अनादि नित्यपर्यायाथिकनय, जैसे मेरु मादि निस्प है आदि का परिचय (५८) सादिनित्यपर्यायाथिकन, जैसे सिद्धपर्याय निस्य है आदि परिचय (५६) ससागौणोत्पादस्पयवाहक नित्याशुद्धपर्यायाथिकनय, जैसे प्रतिसमय पर्याय विनाशीक है। (६०) सत्तासापेक्ष नित्याशुद्धपर्यायाधिक नय, जैसे एक समय में अमात्मक पर्याय ! (६१) उपाश्चि साक्षपे नित्यागद्धपर्यायाधिकनय, जैसे संसारी जीवों के उत्पत्ति मरण है। इसीप्रकार भेदविधि जहां पाई जावे वे सब व्यवहारनय है। यहाँ इस संदेह में नही डोलमा है कि ये ही अनेक नय निश्चयनयमें कहे गये हैं और ये ही गहाँ व्यवहारमय में कहे गये हैं, क्योंकि आशयवश यह सब परिवर्तन हो जाता हैं। जब अभेदकी ओर आगय हो जाता है तो वह निश्चय हो जाता है और जब भेदकी ओर आशय हो जाता है तो वह व्यवहारनय हो जाता है। सभेद प्रयुक्त गुणपर्यापका परिचय एक दृश्य में अभेदके आशयमें निपचयनय है, भेदके आशय में व्यवहारमय है। ऐसी गुजाइशें कई तो पापिकनयों में हैं और कई पर्यायाथिकनयों में हैं। इसका निर्देश अन्तिम पाठ नयमूची में हो जायेगा । आत्मष्ठिसकी साधनामें भेदप्यमहारने तज कर अभेद अन्तस्तत्वका उपयोगी बनना होता है. अतः साधनाके प्रसंग में व्यवहारनय मिथ्या हो जाता है और पश्चात सवनयात्मक ज्ञानानमति के प्रसंगमें निपचयनय भी मिथ्या हो जाता है, किन्तु परिचय के प्रसंगमें न तो मिश्चयनय मिथ्या है और न व्यवहारनय मिथ्या है। ( ३२ )
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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