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व्यवहारनप्रनामक रस्याबिकनय से भिन्न लक्षण वाला है तथा यह व्यवहारमय व्यवहार और उपचार से तो जदा है ही।
पाठ १२-व्यवहार व उपचारके प्रसंगको बिज्ञासाका समाधान दव्याधिकनय व पर्यायाधिकनवसे, निश्चयनय व व्यवहारनयमे जाने गये विषयका निरूपण करना व्यवहार है। यह व्यवहार रुपबहारनय व व्यवहारनयनामक व्याधिकनय इन दोनों के विषयका भी निरूपक है तो भी यह व्यवहार व्यवहारनपसे भिन्न लक्षणवाला है तथैव वह व्यवहार व्यवहारन यनामक व्याथिकनयसे भी भिन्न लक्षणवाला है। उपचारसे व्यवहार तो भिन्न है ही, क्योकि उपचार तो सिन्न-भिन्न द्रव्योंमें परस्पर कारकपना या सम्बन्ध बताता है, और व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रज्यों में परस्पर बारकपना या सम्बन्ध नहीं बताता, किन्तु एक ही द्रव्यको व अनेक द्रव्योंको घटनाका तथ्य बताता है। इसी कारण उपचार मिश्या है, परन्तु व्यवहार मिथ्या नही । यहाँ दो बाते जातव्य है.---१-व्यवहार शब्द का प्रयोग इन स्थलोंमें आता है, व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय, व्यवहार नय, व्यवहार व उपवार मो वहाँ यह विवेक बनाना चाहिये कि यदि वह व्यवहार उपनारवाला है तो मिथ्या है और यदि द्रव्याबिकनयान्तर्गत रावष्टारनयवाला व्यवहार है तो मिथ्या नहीं, इसी तरह जो नर्क विषयका प्रतिपादक व्यवहार है वह मिध्या नहीं। २-उपचारमें भी जिस भाषा में वह बात उपस्थित करता है उसी रूपमें याने उपादान उपादेव रूपमें . भिन्न ध्योंका परस्पर कारकत्व समझे तो वह समझ मिथ्या है और यदि उपचार कथन में प्रयोजन और निमित्त को समझनेका ही मतलब रखें तो उस विवेकीने उपचार कथनमें से भी प्रयोजन निकाल लिया।
पाठ १३-निश्चयनयके प्रकार अभंदयिधिसे एक द्रव्य के बारे में जानकारी होना सो निश्चयनय है (४४) यदि यह जानकारी अखण्ड परम स्वभावको है सो अखाडपरमशद्ध निश्चयनव है..-जैसे अखण्ड शाश्वत महजतन्यस्वभावमात्र आत्माका परिचय । १४५) यदि यह जानकारी गुणकी है तो शक्तिबोधक परमगनिश्चयनम है, जोसे आरमा सहज जान दर्शन शक्ति वीर्य वाला है । (४६) यदि वह जानकारी अभेदविधिसे शुद्ध पर्यायको है तो वह शुद्धनिश्चयनय है। जैसे जीव केवलज्ञाती है आदि शुद्धपर्यायमय जीवका परिचय ।(४६ए) यदि एक द्रव्यमें जानकारी अभेद विविसे शद्ध पर्यायकी है तो वह सभेद शुद्धनिश्चयनय है जैसे-जीवके केवलज्ञान है, केवलदर्शन है, अनन्त सुख है आदि। (४७) यदि एक दूध में जानकारी अभेद विधिसे अशुद्धपर्यायकी है तो वह अशुद्धनिश्चय नम है, जैसे जीव रागी है आदि अशुद्ध पर्यावमा द्रव्यका परिचय । (४७ए) यदि एकद्रव्यका परिचय भेदविधिसे अमाद्धपर्यायको है तो वह सभेद अशुद्धनिश्चयनय है, जैसे जीवके कोन है, मान है, माया है आदि मेदसहित अणुपर्यायमय द्रव्यका परिचय । मभेद परम शुद्धनिश्चयनय शाश्वत गुणको जानने के लिये निश्चयनय है और गुणभेद करके जननिकी दृष्टिसे व्यवहारनय है। इसी प्रकार सभेद शनिश्चयन में एक इव्यमें जानकारी देने से निश्चमन्य है और भेदपूर्वक जानकारी देने से व्यवहारमय है। इसी प्रकार सभेद अशुद्ध निश्चयनम एक द्रव्य में जानकारी देनेसे निश्चनय है और भेदपूर्वक जानकारी देने से व्यवहारमय है। वरपुत: अखण्ड परमशुनिश्चय ही निश्चयनय है उसके समक्ष अन्य निश्चयनय व्यवहार है।
निगंतः पयः यस्मात स निश्चयः इस व्युत्पत्ति में प्रर्थ हा कि जिस में अन्य कुछ जोड़ा न जावे और नि:शेषेण चयः निश्चयः इस व्युत्पलिसे अर्थ हुआ कि जिसमें से कुछ निकाला न जाये उसे परिपूर्ण हो रहन दिया जावे। इस प्रकार निश्चयका अर्थ हा कि जह! ओ और तोड न किया जावे वह निश्चयनय है। इस व्युत्पत्यर्थ में परमशुद्धनिश्वयनय सदा निश्चयनय है और जिन निपचपनयोने गुणको जामा, पर्याय को जाना के उत्तरोत्तर अन्तदृष्टि होनेपर व्यवहार हो जाते हैं।
उक्त चारों निश्चयनयोंमें पहिले दो तो अन्तिम व्यवहार नवनामक द्रव्याथिकनबमें अन्तर्गत है । अन्तके दो निश्चय नय आशयब उक्त द्रश्याथिकनय में व पर्यायाधिकनय में अन्तमंत है। इसका निर्देश अन्तिम पाठमें नवचो में दिया जायेगा।