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________________ वह अर्थ हो तब उस शब्दमे उसे कहना (समझना) एवं भतनय है जैसे-पूजा करते समय हो उस व्यक्तिको पुजारी कहना आदि। तीनों शब्दमय शब्दों द्वारा तक वितर्क कर पाण्डित्य दिखाते हैं। अत: इनका विषय समझ लेना पर्याप्त है। कहीं कहीं इनका उपयोग भी होता है वह किसी समस्याका समाधान भी करता है। हां अर्थनयोंका परिचय अधिक आवश्यक है और उन धर्थनयों में से भी अन्तिम व्यवहारनयनामक दव्याथिकनायका परिचय और भी अधिक आवश्यक है। क्योंकि सर्वनयों में से आत्माका परिचय पाकर सविधि परमहद्रयाथिकनय के विषयको लक्ष्य में लेकर नय प्रमाणसे अतिक्रान्त होकर आत्मानुभव होना सुगम होता है । पाठ १०-निश्चयनय व व्यवहारनयके प्रसंगकी जिज्ञासा अध्यात्मशास्त्र में निश्चयनय, ध्यबहार व उपचारका पद पदपर वर्णन मिलता है। सो यहाँ यह जिज्ञासा होना साभत्र है कि तत्वार्थसूत्रके प्रणेता पूज्य श्रीमदुमास्वामीने नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, गब्द, समभिरुढ, एवंभत ये सात मय कहे हैं। इनमें निश्चयनयका नाम ही नहीं हूँ, आध्यात्मशास्त्र में प्रयक्त व्यवहार सप्लनबमें प्रयुक्त व्यवहारनय से भिन्न है, उपचारका भी सप्तनयमें संकेत नहीं है, फिर आध्यात्मशास्त्र में प्रयुक्त निश्चय व्यवहार उपचारका मतलब क्या है ? इसके समाधानका संकेत कुछ छटे गाठमें किया गया है फिर भी और स्पष्टीकरण आवश्यक है। यदि कोई यह समाधान करनेको चेष्टा करे कि नय दो प्रकार के होते हैं एक आगमनय दूसरा अध्यात्मनाय, नो यहां यह टांका होगाती है कि कमा सामान्य आगमसे अलग विषय है। प्रादमाङ्गको आगम कहते हैं, क्या इस आगम से बाहरी विषय है अध्यात्म । यदि आगमसे पृथक है अध्यात्म, तो वह प्रमाणभूत कैसे रहेगा। अत: नथोंके विषयमें परस्पर भिन्न आगमनय व अध्यात्मनय ये दो प्रकार कहना आगमसम्मत नहीं। सौ इस प्रकार निश्चय, व्यवहार व उपचारके प्रसंगकी जिज्ञासाका समाधान नहीं हो पाता। भले ही कहीं-कही यह उल्लिखित है कि ये अध्यात्मभापासे नव हैं, किन्तु उसका अर्थ यह है कि है तो सभी नय आगममें, किन्तु उन सब। नयों से कुछ नयोंका अध्यात्मग्रन्थों में अधिक प्रयोग होता है । उसी कारण इन्हें अध्यात्मनय कहने लगे हैं, सो यह जिज्ञास खड़ी हो रही कि अध्यात्मशास्त्रों में निश्चय व्यवहार आदि का कहाँ समावेश है। पाठ ११.-निश्चयनय व व्यवहारमयके प्रसंगको जिज्ञासाका समाधान अध्यात्मशास्त्र में नबादिक ४ प्रकारों में है-१-निश्चयनय, २. व्यवहार नय, ३-व्यवहार व ४-उपचार । अभेदविधि से जाननेवाले भयको निश्चयनय कहते हैं। भेदविधिसे जाननेवाले नमको व्यवहारनय कहते हैं। निश्चमनय व व्यवहारलय से जाने गये विषयके कथनको व्यवहार कहते हैं। भिन्न भिन्न दयोंका परस्पर एकका दूसरेको कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्धी व आधार आदि बतानेको उपचार कहते हैं। मिश्चयनय तो ७३ पाठमें बताये गये जो १६ प्रकारके अन्तिम व्यवहारनयनामक न्यायिकनय हैं उनमें जो जो अभेदविषयक नब हैं उनमें ममाविष्ट हैं । और, व्यवहारनय भी उन १६ अन्तिम-यवहारनपनामक द्रव्यापिकनयों में से जो जो भेदविषयक नए हैं उनमें समाविष्ट हैं। इनके अतिरिक्त ८ वें पाठ में उल्लिखित पमायाधिक नयों में जो एक व अभेद विषयक नय हैं उनमें कुछ निश्चयनय समाविष्ट हैं और जो अनेक /भेदविषयक नय हैं उनमें व्यवहारनय समाविष्ट है क्योंकि अभंद विधिसे जाता नयको निश्वयनय कहते हैं और भेदविधिसे ज्ञाता नयको व्यवहारनय कहते है। व पर्यायाथिक नये प्रमाण के अश होनेसे सश्य हैं ऐसे ही निएचयनय व व्यवहारनय प्रमाण के मश होने से सत्य हैं। द्रव्याथिकनय वस्तुको द्रव्यको प्रधानता से जानता है, पर्यायाथिकनय बस्तु को पर्यायकी प्रधानतासे जानता है, निश्चयनय वस्तुको अभेदविधिसे जानता है, व्यवहारनय बस्तुकोद मे विधिसे जानता है। यहाँ यह जानना कि भेदविधिसे द्रव्य व पर्यायका ज्ञान नराने वाला यह व्यवहारनय व्यवहारनयनामक व्याथिकनयोंमें यथोचित समाविष्ट होनेपर भी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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