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________________ स्वचतुष्टयसे है । (२६) परद्र हरदयामाया, से -मा परचमटा दी है । (३०) परमभावग्राहक जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है 1 इस प्रकार १८ रूपोंमें निश्चयनय आया, तो भी एकके सामने दूसरों की तुलना होनेपर उनमें ओ अधिक अभेदमाला निश्चयतय है उसके सामने अन्य निश्चय व्यवहार कहलाते हैं। पाठ-पर्यायाथिक प्रर्धनय पर्यायाथिकनय हैं.-ऋजसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय, एवं भूतनय । इनमें से सिर्फ ऋजसवनय अपनय है, शेष ३ नय अदनय हैं। जो वर्तमान पर्यायको जाने उसे ऋजसत्रनय कहते हैं। यहां यह जान लेना अत्यावश्यक है कि पर्याय स्वतंत्र सत् नही है याने सत् नहीं है, किन्तु सत् पदाधंका परिणमन है। सत् के ये लक्षण हैं-(१) उत्पादश्ययधोध्ययुक्तं सत, (२) मुणपर्ययवदव्यम्, (३) अन्य सतोंसे प्रविभक्त (पृथक् ) प्रदेशवाला, (४) साधारण व असाधारण गुणवाला, (२) दम्पपजनपर्याय व गुण व्यञ्जनपर्यायवाला। इन लक्षणों में से एक भी लक्षण पर्याय में नहीं है, अतः पर्याय सत् नहीं है। फिर यह प्रश्न हो सकता है कि जब पर्याय सत नहीं है, तो उसका ज्ञान कैसे हो, सत हो तो प्रमेय होता है। उत्तर... पर्यायका जान नहीं हबा करता, किन्त पर्यायमखेन सत दृश्यका ज्ञान हुआ करता है। ऋज मूत्रनय द्वारा पर्यापमुखन द्रव्य सत् का ज्ञान होता है। हां. पर्याषकी मुख्यता इष्टिमें है । जिनके मतमें पर्याय स्वतन्त्र सत् है उनके मन में पर्याय ही पूरा पदार्थ हो जाता है, फिर उसका अन्वय व उपादान कुछ न रहने से सर्वथा क्षणिकवाद बन जाता है, जो जनशासनसे विपरीत है, जिसका निराकरण प्रमेयकमलमार्तण्ड अक्टसहस्री आदि शंनिक ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक है। सुक्ष्म जसअनयका विषय एक संमयकी पर्याय है। यह जान किसी व्यवहार या प्रयोग बनाने के लिये नहीं, इस शानमें तो व्यवहारका लोप होता है। यह तो विषयज्ञान कराने मारके लिये है। ऐसा स्पष्ट कथन सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में आचार्य देवोंने किया है। ऋजुसूत्रनयके प्रकार इस प्रकार हैं ---(३१) अशुद्ध स्थल ऋजुसूमयनामक पर्यायाचिकनय, जैसे–नर नारक मादि पर्याय याने विभावधव्यन्जन-पर्यायों का परिचय 1 (३२) शुद्ध स्थूल ऋजुसत्रनय, जैसे चरमशरीरसे कुछ न्यून आकारवाला सिद्ध पर्याय पाने स्वभावद्रव्यन्यजनपर्यायों का परिचय । (३३) अशुस सुक्ष्म ऋजसवनय, जैसे-कोष आदि विभावगुणव्यम्जन पर्यायों का परिचय । (३४) शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय, जैसे-केवलज्ञान आदि स्वभावगुणव्यञ्जन पर्यायों का परिचय । (५) अनादि निस्य पर्यायायिकनय जैसे-मेरु आदि नित्य है इत्यादि परिषय । (३६) सादि नित्य पर्यायापिकनय, जैसे--सिद्ध पर्याय नित्य है। अशुद्ध पर्याय हटकर सदा शुद्ध रहने वाले पर्यापोंका परिचय । (१७) सत्तागीणोत्पादव्ययग्राहक नित्य अशुद्ध पर्यायाधिकनय, जैसे प्रतिममय पर्याय विनाशीक है आदि परिचय । (३०) ससासापेक्ष नित्य अपाद्ध पर्यायाधिकनय, जैसे-एक समयमें हुए वयात्मक पर्यायों का परिचय। (३६) उपाधिनिरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायाथिकनय, जैसे -सिद्धपायसदश संसारियोंकी शद्ध पर्याय। (४०) उपाधिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाबिकनय, जैसे---संसारी जीवोंके उत्पत्ति और मरण है। पाठ-शदाय शब्दनयके ३ प्रकार है, (४१) शब्दनय, (४२) समभिनय, (४३) एवंभूतनय । ऋजसूत्रनयनामक पर्यायाचिकनयसे जो परिणमन ज्ञात हुआ है उसे उसके प्रायः पर्यायवाची सब शब्दोंमें से न कहकर जो पदार्थादिविधिसे पूर्ण फिट बैठे उस गन्दसे ही कहना (समझना) शम्दनाय है। जैसे दारा भार्या कलय आदि शब्दोंसे भिन्न-भिन्न रूपमें बायको ग्रहण करना। शब्दनयसे उस शके वाच्य अनेक अर्थों में से जिस अर्थ में उस शम्बकी रूदि है उस अर्थको ही उस शब्दसे ग्रहण करना (सममना) सममिवनय है। जैसे-गो बदके वाव्य गाय, किरण, क्षणी, आदि अनेक अर्थ है, किन्तु गो शवकी कदि गायमें होनेसे गो घाब्दसे गायको हो ग्रहण करना (समाना) । समभिरूद्धनयसे जो अर्थ समझा उसको भी सभी समयमें न कहकर (समत कर) उस शब्दकी बाच्य अपंक्रियासे परिणत अब
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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