________________
"जीव दय" अपरसंग्रह का भेद किया. जीव दो प्रकारक है मुक्त व संसारी, सो यह अपरसंग्रहभेदक व्यवहार नामक द्रव्याथिकनय हुआ। अब आये एक-एक विभागका भेद करते जायें तो वे सब अपरसंग्रह भेदक व्यवहारनय होते जायेंगे । इस प्रकार जब तक एक अखण्ड सत् पर नहीं पहुंचते तब तक अपरमंग्रहभेदक व्यवहारनय प्रयोक्तव्य होते जाते हैं। इसका प्रथम प्रकार है-(६) परसंग्रहभेदक व्यवहारमयनामक द्रष्याथिकनय । द्वितीय प्रकार है-(१०) अपरगग्रह-भेदकन्यवहारनयनामक ट्रव्यापिकनय । तृतीय प्रकार है.-(११) अन्तिम अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनय । इनके ३ भेद आशथवश हो जाते हैं। ४-(१२) परम शुद्ध अपरसंग्रहदकव्यवहारनयनामक द्रव्याधिकनय, (१३) गद्ध अपरसंग्रहमै दक पबहारनयनामक द्रव्यापिकनप, (१४) अशुद्ध अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामातल्यायिकनय ।
पाठ ६ --ब्रन्यायिक अन्तिम व्यवहारमय अपरसंग्रहका भेद कर-कर जब हम अखण्ड सत् तक पहुंच जाते हैं फिर इसका भेद नही किया जाता। अब एक सत तक पहुंचाने वाले इस व्यवहारनयको अन्तिम व्यवहारमय नामक द्रव्याधिकनय कहते हैं। यही निश्चयनय कहलाता है। निश्चयनय एक अखण्ड सत को अर्थात् एक द्रव्यको जामता है सो अन्तिमव्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनयने भी अन्तिम अपरसंबह को भेद करके एक अखण्ड सस्का बोध कराया। अब इस एक सतको जानते समय परमएड, शुद्ध अथवा अशुद्ध जिस विधिका मूड होगा उसी विधिमें इस सत्का जान होगा। इसको परमशुद द्रव्यामिक, प्रद्धरण्यायिक द अशुद्धद्रव्यार्षिक कहिये या परम शुद्धनिश्चयनय, शुद्ध निश्चयनय व अशुद्धनिश्चयनय कहिये ।
यह अन्तिम व्यवहारनय अर्थनय है व उसमें भी द्रव्याथिकनय है। इस कारण र व्यवहारमय अध्यात्मशास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले निश्चय व्यवहार वाले व्यवहारसे भिन्न है। निश्चय व्यवहारमें प्रयुक्त व्यवहार कथन करने दाना है और यह व्यवहारनयनामक धाथिकनय अधिगम करने वाला है और यह भी द्रव्याथिक दृष्टि से । इम अन्तिम व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय में परिपूर्ण अखण्ड एक सत् अन्य सबसे विभक्त करके दिमें स्थापित किया ।
पाठ ७--अन्तिम च्यवहारमय नामक द्रव्याथिकमयके प्रकार अन्तिम व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनयने अन्तिम अवरसग्रहको विभत करके अखण्ड एक सत का बोध कराया । अब इस अखण्ड एक सत् को गुण, स्वभाव, शुद्ध पर्याय, अशुद्धपर्याय, अभेद आदि जिस जिसकी मुख्यता करके जिस-जिस रूपसे जाना जामेगा उतने ही इसके प्रकार बन जावेंगे । जैसे (१५) परमशद्ध अभेदविषयी असिमलक्षित व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय, जैसे चिन्मात्र आत्मा।(१६) परमशुद्ध भेदविषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक
च्याधिकनय, जैसे-जान दर्शन आदि गुण वाला आत्मा । (१७) शुद्ध अभेद विषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक ट्रेध्यामिकलय, जैसे-जीव केवलज्ञानी है। (१८) शुद्ध भेदविषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक दव्याथिकनय जैसेमुक्त जीवक अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन आदि । (१६) अध्यक्त अशुद्ध अन्तिमलक्षित स्यवहारनयनामक व्याथिकनय, जैसे अबुद्धिगल क्रोध आदि बाला जीव (२०) व्यक्त अशुद्ध अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक दायिकन य, जैसे बुद्धिगत क्रोध आदि वाला जीव ।
(२१) उपाधिनिरपेक्षशुद्ध द्रव्याधिकन य, जैसे-संसारी जीव सिद्धसमान शुशास्मा है । (२२) उत्पादव्ययगौणसत्ताप्राहक शुद्ध द्रव्याथिक नप, जैसे- द्रव्य निस्य है । (२३) भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय, जसे-निजमुण पर्याय स्वभावसे अभिन्न द्रव्य है। (२४) उपाधिसापेक्ष अशुद्रव्याथिकनय, जैसे -कर्मोदय विपाकके सान्निध्य में जीव विकास विकल्परूप परिणमता है।/४ A) उपाध्यभावापेक्ष शुद्धष्ट्रध्याथिकनय, जैसे-कमोपाधिके अभावका निमित्त पाकर आत्माकी शुद्ध परिणति होनेका शान (२४B) शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध-द्रव्याथिकनय, जैस-आत्माके शुद्धपरिणामका निमित्त पाकर कमंत्वका अय होनेका ज्ञान । (२५) उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यापिकनय, जैसे-द्रव्य उत्पादम्ययध्ययुक्त है । (२६) भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यापिकन य, जैसे आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चरित्र है आदि । (१५-२७) अन्वयव्याथिइन य, जैसे-गुणपर्याधस्वभावी आत्मा है। (२६) स्वदम्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय, जैसे-आत्मा प्याथिकलय