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वस्तुको जानकारी कराते हैं, किन्तु ऋजुसूत्र नय पर्यायष्टिको मुख्यससे वस्तुको जानकारी कराता है। शन्दन य. समभिरूढ़ नए द एवभत नय भी कराते तो जानकारी हैं पर्यायरष्टि से वस्तुकी, लेकिन शब्दकी मुख्यतासे जानकारी कराते हैं। अत: इन तीन अन्तिम नयोंको शब्दनय कहते हैं। अब सर्वप्रथम इन सात नोंकी जानकारी कीजिये।
पाठ ३–प्रख्यापिक नंगमनम संकल्पमात्रग्राही नगमः । ओ संकल्पको ग्रहण करे (जाने) वह नंगमनम है । नैगमनय में अभेद व भेद दोनो विषम पड़े हैं। नैगमनय ३ प्रकारका होता है(१) मतनगमनय, (२) भाषिनगमनय, (३) बर्तमान नैगमनय । अतीत में कामानका आरोपण करना भूतनगमनय है, जैसे कहना कि आज दीपावली के दिन श्री दई मान स्वामी मोक्षको गणे है। यहां जो कुछ कहा जा रहा है उसमें संकल्पकी मुख्यता है । भविष्य के बारे में अनीतकी तरह कहना भायिनंगमनय है, जैसे कहना कि अन्त तो सिद्ध हो हो चुके । यहाँ भी संकल्प की प्रधानता है। करने के लिए प्रारम्भ किय गये कुछ निष्पन्न व अनिष्पन्न वस्तुको निष्पनकी तरह जहाँ कहा जाता है वह वर्तमाननगमनय है, जैसे कहना कि भात (चावल) पक रहा है।
ये सभी नेगम नय संकल्पमें होनेवाले जान हैं । यहाँ दम पर्याय, भेदै अभेद, सत् असत् का समन्वयपूर्वक ज्ञान चल रहा है जो संकल्पमात्र है। अत: नंगमनय जाननय है । अर्थमय नैगमनयसे सूक्ष्मविषयमय है। अर्थनयोंमें महाविषयरूप संग्रहन य है। संग्रहसयसे सूक्ष्मविषयी व्यवहारनयनामक द्रव्यायिकनय है. इससे सूक्ष्मयिषयो ऋजमयनयनामक पर्यायाथिक नय है।
पाठ ४-वड्याथिक संग्रहनय संग्रहनयसे अनेक वस्तुओंका संग्रह जाना जाता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपमात्र है। वह अखण्ड सत् है, निश्चयनय द्वारा जय है 1 से अनन्त सतों का, सर्व सतों का संग्रह किसी साधारण धर्मकी मुख्यताकी दृष्टि होनेपर ज्ञात हो जाता है। जैसे सत इस दृष्टि में सर्व सत् पदार्थोका संग्रह ज्ञात हो गया। इस सर्वसंग्रहका सान करनेवाले ज्ञानको परयसग्रहनम कहते हैं। इस संग्रह अनन्त परमार्थीका संग्रह है, यह ज्ञान तो हुआ सग्रहनरसे, किन्तु जब तक एक अखण्ड सत् पर दृष्टि नहीं बनती तब तक केवलदष्टि याने मुद्धनय न आ सकनेसे मोक्षपथमें मति नहीं हो पाती, अत: आवश्यक है कि परमसंग्रहको भेद करके आवान्तरसत् की ओर बढ़ें। इसके लिये आगे कहा जानेवाला व्यवहार. नयनामक द्रव्यार्थिक नय प्रयोक्ता होता है। उसमें पहली बार भेद किया तो कुछ बिभक्त होनेपर भी संग्रह ही बना रहा । ऐसा संग्रह जाननेवालेको अपरसंग्रह नय कहते हैं. यहाँ भी परामर्थ सतों का संग्रह ही रहा ।।मे अनेक बार व्यवहारमयनामक द्रव्याथिकनय विभाग करते जानेपर भी जब तक अखण्ड एक सत् नहीं ज्ञात हो पाता है तब तक अनेकों अपरसंग्रह नय होते जाते हैं। इसका प्रथम प्रकार है-(४) परसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय । द्वितीय प्रकार है. (५) अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिकनय । इसमें अभेद द्रव्य, शुद्धपर्यायी द्रव्य, अश पर्यायी व्यका जानाशय होने में इसके ३ भेद हो जाते हैं, (६) परमशुद्ध अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय (७) शुद्ध अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय (5) अशुद्ध अपरसंगहनमनामक द्रव्याथिक नय ।
पाठ ५.-वख्यायिक व्यवहारनय संग्रहनयसे ग्रहण किये गये पदार्थोके संग्रहका भेद करके भेदरूपसे ग्रहण करनेवाले ज्ञानको व्यवहारमय कहते हैं । यह व्यवहारनय अनेक अखण्ड सतोंके संग्रह में से अखण्डोंको असम-अलग जानने के प्रयत्न में चलता है । सो परसंग्रहका भेद करके कुछ अलग-अलग जातियों में विभक्त कर जानना परसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामक द्रव्याधिकमय है। फिर उनमें भी भंट करके विभक्त सारूप्यमें पदार्थोंको जानता जाये तो वे सब अपरसंग्रह एक व्यवहारनपनामक द्रग्याथिकनय कहलाते हैं । जैसे–पहिले "सत" परसंग्रहको भेद करके छह जातियों में लाये-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल दन्य, तो यह परसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामक दयधिकनय कहलाया । फिर उनम से मानो