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________________ ४६४ किमेतदध्यवसानं नामेति चेद समयसार बुद्धी ववसायवि य श्रवसा मई य विष्णाणं । एकमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१ ॥ बुद्धि व्यवसाय अथवा अध्यवसान विज्ञान विस तथा । " परिणाम भाव ग्रह मति, ये सब एकार्थवाचक हैं || २७१ ॥ facierest अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानं । एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ॥ २७९ ॥ स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं । तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः | व्यवसानमात्रत्वाद् व्यवसायः । मननमात्रत्वान्मतिः । विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं चेतन मात्र नामसंज्ञ - बुद्धि, बवसाअ, वि, य, अम्भवसरण, भइ, य, विष्णाण एकट्ट, एव, चित्त, भाव, व. परिणाम | धातुसंज्ञ - बुज्झ अवगमने, मन अवबोधने, चेत करणावबोधनयो: । प्रातिपदिक-बुद्धि, व्यव साथ, अपि च, अध्यवसान, मतिः च, विज्ञान, एकार्थं, एव सर्व चित्त, भाव, च, परिणाम । मूलधातुतात्पर्य - बुद्धि व्यवसाय प्रादिक भिन्न-भिन्न अपेक्षावोंसे अध्यवसान भावके ही वाचक हैं. । टोकार्थ- स्व और परका भेद ज्ञान न होनेपर जीवको मात्र मान्यता श्रध्यवसान है । वही बोधनमात्र से बुद्धि हैं, प्रसङ्ग में लगे रहने से व्यवसाय है, जाननमात्रपनेसे मति है, विज्ञप्तिमात्रप से विज्ञान है, चेतन मात्रसे चित्त है, चेतनके भवनमाश्रपनेसे भाव है और परिणामनमात्रप से परिणाम है । इस प्रकार ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। भावार्थ - ये जो बुद्धि ग्रादिग्रा नाम कहे हैं वे सभी इस जीवके परिणाम हैं। जब तक स्व और परका भेद ज्ञात न हो तब तक परमें और अपने में जो एकत्वके निश्चयरूप बुद्धि प्रादिक होते हैं वे सब अध्यवसान ही हैं । अब कहते हैं कि जो अध्यवसान त्यागने योग्य कहा गया है सो मानो सब व्यवहार का त्याग कराकर निश्चयका ग्रहण कराया गया है - सर्वत्रा इत्यादि । प्रर्थ- समस्त वस्तुओं में जो अध्यवसान हैं वे सब जिनेन्द्र भगवानने त्यागने योग्य कहे हैं सो ऐसा मैं मानता हूं कि परके आश्रय से प्रवर्तने वाला सभी व्यवहार छुड़ाया गया है । तब फिर यह सत्पुरुष सम्यक् प्रकार एक निश्चयको ही निश्चलतासे अंगीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप प्रपनी आत्मस्वरूप महिमामें स्थिरता क्यों नहीं धारण करते ? भावार्थ - जिनेश्वरदेवने अन्य पदार्थों में जो आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाया है सो ऐसा समझना चाहिए कि पराश्रित सभी व्यवहार छुड़ा दिया है। इस कारण शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो ऐसा
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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