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________________ बन्धाधिकार वैतानि न विद्यते त एव मुनिकुन्जराः केचन सदहेतुकज्ञप्त्य कक्रिय सदहेतुकज्ञायकभावं सदहेतुकशानकरूपं च विविक्तात्मानं जानंतः सम्यक्पश्यतोऽनुचरंतश्च स्वच्छस्वछंदोद्यदमंदांतयोतिषोऽत्यंतमज्ञानादिरूपत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वा कर्मणा खलु न लिप्येरन् ।। २७० ।। अशुभेन शुभेन कर्मणा-तृतीया एक० । मुणो मुनयः-प्र० बहु० । ण न-अव्यय । लिप्पंति लिप्यन्ते-बर्नमान लद अन्य पुरुष बहुवचन भावकर्मवाच्य क्रिया ।। २७० ॥ ज्ञान न होनेसे क्रियागर्भाध्यवसान अज्ञानरूप है, विविक्तात्माका दर्शन न होनेसे कियागर्भा___ध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्माका प्राचरण न होनेसे क्रियागर्भाध्यवसान मिथ्याचारित्र है। ३-सत् अहेतुक ज्ञायकस्वरूप निज प्रात्मामें व कर्मोदयजनितनारकादिभावोंमें अन्तर न जानने के कारण विविक्तात्माका ज्ञान न होनेसे विपच्यमानाध्यवसान अजानरूप है, विवि. क्तात्माका दर्शन न होनेसे विपच्यमानाध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्माका पाचरण न होने से विपच्यमानाध्यवसान मिथ्याचारित्र है । (४) सत् अहेतुक ज्ञानरूप निज प्रात्माका व ज्ञेयमय पदार्थका अन्तर न समझने के कारण विविक्तात्माका ज्ञान न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान प्रज्ञानरूप है, विविक्तात्माका दर्शन न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्मा का प्राचरण न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान मिथ्याचारित्र है। (५) अथवा क्रियागर्भाध्यवसान मुख्यतया प्रचारित्ररूप है। (६) विपच्यमानाध्यवसान मुख्यतया मिथ्यादर्शनरूप है । (७) ज्ञायमानाध्यवसान मुख्यतया मिथ्याज्ञानरूप है। (८) जिनके ये अध्यवसानभाव हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । (६) ये सभी अध्यवसान कर्मबन्धके निमित्त कारण हैं। (१०) जिनके ये अध्यवसान नहीं है वे ही मुनिश्रेष्ठ हैं । (११) जो शतिक्रिया, ज्ञायकस्वरूप, ज्ञानमय विविक्तात्मा को जानते देखते भाचरते हैं वे शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते । सिद्धान्त-(१) ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वको पाराधनासे अध्यवसानभाव व कर्मबन्ध दोनों दूर हो जाते हैं। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-प्रध्यबसान व कर्मबन्धसे हटने के लिये अपनेको शतिक्रिय, ज्ञायकस्वरूप ज्ञानमात्र निरखना ।। २७० ॥ प्रश्न-वह अध्यवसान क्या है ? उत्तर--[बुद्धिः] बुद्धि [व्यवसायः] व्यवसाय [अपि च] और [मध्यवसानं] अध्यवसान [च] और [मतिः] मति [विज्ञान] विज्ञान [चित्त] चित्त [भावः] भाव [4] और [परिणामः] परिणाम [सर्व] ये सब [एकार्थमेव] एकार्थ ही हैं याने इनका अथं भिन्न नहीं है, मात्र नामभेद है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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