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________________ समयसार चाचारित्रं । यत्पुनारकोहमित्यायध्यवसानं तदपि ज्ञानमयस्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकवभावस्य कदियजनितनारकादिभावानां च विशेषाज्ञान दिदिक्तामाजानः स्तिमज्ञानं विवि मामादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । यत्पुनरेप धर्मों ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानेकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्भादिरूपाणां च विशेषाजानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विवि. तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रं । ततो बंध निमित्तान्ये वैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । येषामे. न-अव्यय । अस्थि संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जेसि येषां-षष्ठी बहु । अज्भवसागणि अध्ययसानानि-प्रथमा बहुः । एवं-अन्यय । आदीणि आदीनि-प्र० बहु । ते-प्र० बहु० । असुहेण सुहेण कम्मेण मुनिकुंजर हैं । ऐसे कोई कोई विरले पुरुष सत् अहेतुक ज्ञप्ति एक क्रिया वाले, सन् अहेतुक एक ज्ञायकभावस्वरूप और सत् अहेतुक एक ज्ञानरूप विविक्त प्रात्माको जानते हुए उमीका सम्यक श्रद्वान करते हुए और उसीका पाचरण करते हुए निर्मल स्वच्छन्द स्वाधीन प्रवृत्तिम्हप उदयको प्राप्त प्रमंद प्रकाश रूप अन्तरङ्ग ज्योतिःस्वरूप हैं, इसी कारण अज्ञान प्रादिके अत्यन्त प्रभावसे शुभ तथा अशुभ कर्मसे नहीं लिप्त होते ।। भावार्थ - "मैं परको मारता हूं" आदि अध्यवसान तो क्रियागर्भाध्यवसान है । तथा "मैं नारक हूं" आदि अध्यवसान विपच्यमानाध्यवसान हैं। तथा 'मैं परद्रव्यको जानता हूं" आदि ज्ञायमानाध्यवसान है । सो इन अध्यवसानोंमें जीव तब तक प्रवर्तता है जब तक आत्मा के रागादिकके तथा प्रात्माके व नारकादिकके तथा प्रात्माके व ज्ञेयरूप अन्य द्रव्यके भेद न जाने । वह अध्यवसाय भेदज्ञानके बिना मिथ्याज्ञानरूप है, मिथ्यादर्शनरूप है तथा मिथ्याचारित्र रूप है । ऐसे यह मोही तीन प्रकार प्रवर्तता है । जिनके ये अध्यवसान नहीं है वे मुनिकुंजर हैं, वे ही प्रात्माको सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धान करते हैं, सम्यक् प्राधरण करते हैं । इस कारण अज्ञानके अभावसे उत्तम तत्त्वज्ञ प्रात्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हुए कर्मोसे लिप्त नहीं होने । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें बताया गया था कि यह जीव अज्ञानमय अध्यवसायसे अपनेको नानारूप करता रहता था। अब इस गाथामें बताया है कि वे अध्यवसाय जिन जीवोंके नहीं है वे मुनि शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते। तथ्यप्रकाश-१- अध्यवसान तीन प्रकारके होते हैं--(१) क्रियागर्भाध्यवयान, (२) विपच्यमानाध्यवसान, (३) ज्ञायमानाध्यवसान । २- सत् अहेतुक ज्ञप्तिक्रियामात्र निज मात्मामें व रागद्वेषविपाकमयी हननादि कियावोंमें अन्तर न जाननेके कारण विविक्त प्रात्माका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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