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________________ बन्धाधिकार ४४३ अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्याष्टिः ॥ मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बंधहेतुविपर्ययात् । य एवाध्यवसायोयमज्ञानात्मास्य दृश्यते ।।१७०। ।। २५७.२५८ ।। दय. च, एव, खलु, तत् न, मारित, न, दुःखापित, च, इति, न. तु, मिथ्या । मूलधातु ----मृड त्यागे तुदादि, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, दुःख तस्क्रियायां चुरादि। पदविवरण जो यः-प्रथमा एक० । च-अव्यय । दुःखित:-प्रथमा एक० । कम्मोदयेण कर्मोदयेन-तृतीया एक०। सो स:-प्र० ए० । सम्वो सर्व:-० ए०। तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । दु तु-अव्यय । मारिदो मारित:-प्र० ए० । दे ते-षष्ठी एक | दुहाविदो दुःखापित:-प्रथमा एक०। च इदि ण हु, च इति न खलु-अव्यय । मिच्छा मिथ्या-प्रथमा एक० । मरदि भ्रियते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया। जायदि जायदि जायते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । शेष पुर्ववत् ।। २५७-२५८ ।। तरहका फल याने मरण जीवन सुख दःख नहीं हो सकता । इस कारण मेरे द्वारा यह माग गया, यह जिवाया गया, यह दुःखी किया गया, यह सखी किया गया, ऐसा मानता हुमा जीव मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ-जब किसीके सुख दुःखमें अन्य जीव । सो उपादान कारण है और न निमित्त कारण है तब अन्य के मारने जिवाने प्रादिका जो अभिप्राय करता है वह मियादृष्टि ही होता है । मारने प्रादिका भाव कर्मबंधहेतु है, अतः ऐसा अज्ञानभाव नहीं रखना । अब इसी अर्थकों स्पष्ट करते हैं--मिथ्यादृष्टेः इत्यादि । अर्थ---मिथ्याप्टिका यह अध्यवसाय विपर्ययस्वरूप होनेसे वह प्रत्यक्ष अज्ञानरूप है और वही अभिप्राय इस मिथ्यादृष्टि के बन्धका कारण है । भावार्थ-मिथ्या प्राशय ही मिथ्यात्व है व वही बंधका कारण है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व २४७ से २५६ गाथा तक दुसरेके मरण आदि करने अध्यवसायोंको प्रज्ञान बताया गया था । मब उन्हीं सब कथनोंका उपसंहाररूप निष्कर्ष इन दो गाथावों में बताया गया है । ___ तथ्यप्रकाश-(१) मरण जीवन दुःख सुख होना कर्मोदयसे ही होता है । (२) नये जीवनका ही नाम मरण है । (३) नवीन प्रायुके प्रथम समयमें अर्थात् प्रथम निषेकोदयके समय पूर्वभव नहीं रहता, इस कारण मरण होना भी नवीन प्रायुके उदयसे कहा जाता है । (४) मैं किसी अन्यको कर्मोदय दे नहीं सकता, अतः मैंने इसे मारा, जिलाया, सुखी किया, दुःखी किया, ऐसा देखना मिथ्यात्व है । सिद्धान्त-(१) जीव के मरण जीवन सुख दुःख होने में निमित्त कारण कर्मोदय है। (२) दूसरे जीवके सुख-दुःख आदि होने में अन्य जीव उपादान व निमित्त दोनों ही कारण न होनेपर भी काका व्यवहार करना मात्र उपचार है। दृष्टि--१- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । २- परकर्तृत्व उपचरित असद्भूत व्यवहार
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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