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समयसार
एसा दुजा मई दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति । एसा दे मूढमई सुहासुहं बंध कम्मं ॥ २५६ ॥ यदि तेरी मति यह हो, जीवोंको मैं सुखो दुखी करता । तो यह मोहितमति ही, बांधे शुभ या अशुभ विधिको ॥ २५६ ॥
एषा तु या मतिस्ते दुःखित सुखितान् करोमि सत्वानिति । एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म २५६॥ परजीवानहं हिनस्मि न हिनस्मि दुःखयामि सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयोऽध्यव नामसंज्ञ - एता, दु, जा, मह, तुम्ह, दुक्खिदहिद, सत्त, ते एता, तुम्ह, मूढमइ, सुहासुह, कम्म । धातुसंज्ञ कर करणे, बंध बन्धने । प्रातिपदिक- एनत्, तु, या मति, युष्मद् दुःखित, सुखित, सत्त्व, इति,
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( १२६ ब ) |
प्रयोग - - परपदार्थ के विषय में सभी प्रकारके अध्यवसानों को छोड़कर अविकल्प सहजसिद्ध अन्तस्तत्त्वमें उपयोग करना ।। २५७-२५८ ।।
अब यही अध्यवसाय कर्मबन्धका कारण है यह कहते हैं - हे आत्मन [ते तु ] तेरी [इति एषा या मतिः ] ऐसी यह जो बुद्धि है कि मैं [ सत्त्वात् ] जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] सुखी दुःखी [ करोमि ] करता हूं [ एषा ते ] सो यह तेरी [ मूढमतिः ] मूढबुद्धि ही [ शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मोंको [ बध्नाति ] बांधती है ।
तात्पर्य- दूसरे जीवोंको दुःखी सुखी आदि करनेका जो अहंकार है वह कर्मबन्धका निमित्त कारण है ।
टीका --- परजीवोंको मैं मारता हूं, नहीं भारता हूं, दुःखी करता हूं, सुखी करता हूं, ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्यवसाय है वह मिथ्यादृष्टिके होता है । यही अध्यवसाय स्वयं रागादिरूपपते के कारण उसके शुभाशुभ बन्धका कारण है। भावार्थ- दुःखी सुखी करने आदिका मिथ्या अध्यवसाय बन्धका कारण है ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्वं गाथाद्वय में मिथ्या अध्यवसायोंका उपसंहारात्मक निष्कर्ष बताया गया था | अब इस गाथा में बताया गया है कि उक्त समस्त श्रध्यवसाय कर्मबन्धका हेतुभूत है ।
तथ्य प्रकाश---- - ( १ ) मैं दूसरे जीवको सुखी दुःखी करता हूं यह प्रज्ञानमय अध्यवसाय स्वयं रागादि विकाररूप है । ( २ ) रागादि विकाररूप श्रज्ञानमय अध्यवसाय शुभाशुभ कर्मबन्धका निमित्त कारण है । ( ३ ) स्वभावच्युतिके कारण इन श्रध्यवसानोंका कार्य बन्धन हो है, अन्य कुछ नहीं ।