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________________ बन्धाधिकार सायो मिथ्यादृष्टेः स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभ बंधहेतुः ।। २५६ ।। एता युष्मद् मूढमति, शुभाशुभ कर्मन् । मूलधातु- डुकृञ् करणे, बन्ध बन्धने क्रयादि । पदविवरणएसा एषा प्रथमा एक दु तु-अव्यय । जा या प्रथमा एक० । मई मतिः- प्र० ए० । दे ते-ष्टी एक० । दुखद सुहिदे दुःखितसुखितान् द्वितीया बहु० । करेमि करोमि - वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया । सत्ते सत्त्वान - द्वि० बहु० 1 ति इति-अव्यय । एसा एषा प्रथमा एक० | दे ते पष्ठी ए० । मूढमई मूढमतिःप्रथम एक सुहासुहं शुभाशुभम् - द्वितीया एकवचन । कम्मं कर्म - द्वितीया एक० । बंधये बध्नातिवर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। २५६ ॥ ४४५ सिद्धान्त - - (१) कर्मबन्धका कारण स्वभावच्युत aane रागादि विकाररूप प्रशानमय अध्यवसाय है । दृष्टि - १ - निमित्तदृष्टि ( ५३ ) | प्रयोग - कर्मबन्धके हेतुभूत समस्त अध्यवसायोंको छोड़कर सहजशुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना ।। २५६ ।। अब मिथ्या श्रध्यवसायको बन्धके कारणरूपसे अवधारित करते हैं- मैं [ सत्त्वान् ] ataist [दुःखितसुखितान् ] दुःखी सुखी [ करोमि ] करता हूं [ एवं यत् ते अध्यवसितं ] ऐसा जो तुम्हारा अध्यवसाय है [ तत्] वह अभिप्राय [ पापबंधकं वा ] पापका बंधक है [ या पुण्यस्य बंधकं ] तथा पुण्यका बंधक [ भवति ] है । [ बा] अथवा मैं [ सत्त्वात् ] जीवोंको [ मारयामि] मारता हूं [ जीवयामि ] श्रथवा जिवाता हूं [ यदेवं ते अध्यवसितं ] जो ऐसा तुम्हारा अध्यवसाय है [ तत् ] वह [ पापबंधक या ] पापका बंधक है [ या पुण्यस्य बंधकं ] थवा पुण्यका बंधक [ भवति ] है । तात्पर्य - प्रन्थ द्रव्य में कुछ करनेका भाव शुभ अशुभ भावानुसार पुण्य च पापका बन्ध करने वाला है । टीकार्थ - मिथ्यादृष्टिके जो हो यह प्रशानजन्य रागमय अध्यवसाय है वह ही बन्ध का हेतु है, ऐसा निश्चित जानना । बन्ध पुण्य-पाप के भेदसे दो भेद वाला है सो इसके दो भेद होने से कारणका भेद नहीं खोजना, क्योंकि इस एक हो अध्यवसाय से "मैं दुःखी करता हूं मारता हूं तथा सुखी करता हूं जिवाला हूँ" ऐसे दो प्रकारके अशुभ ग्रहंकाररससे पूर्ण होने से पुण्य पाप दोनोंके ही बन्धहेतुत्वका विरोध है याने अध्यवसायसे ही पुण्य पाप दोनोंका बंध होता है । भावार्थ - प्रज्ञानमय अध्यवसाय ही बंघका कारण है; उसमें चाहे जिवाना सुखी करना यह प्रशुभ अध्यवसाय हो, ग्रहजानना कि शुभका कारण तो अन्य है करना ऐसा शुभ श्रध्यवसाय हो, चाहे मारना दुःखी काररूप मिथ्याभाव दोनोंमें ही है इस कारण ऐसा न "
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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