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समयसार
अथाध्यवसायं बंधहेतुत्वेनावधारयति
दुक्खिदसु हिदे सत्ते करेमि जं एवमझवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्म व बंधगं होदि ॥२६०॥ मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमझवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ॥२६१॥ (युग्मम्)
दुखी सुखी करता है, हो अध्यवसान भाव यदि तेरे । तो वह अघका बन्धक, अथवा है पुण्यका बन्धक ।। २६०॥ मारू जीवन देऊ, हो अध्यवसान भाव यदि तेरे ।
तो वह अधका बन्धक, अथवा है पुण्यका बन्धक ॥२६॥ दुःखितसुखितान् सत्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबंधक वा पुण्यस्य वा बंधक भवति ।।२६०111 मारयामि जीवयामि च सत्वान् यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ।।२६१॥
___ य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोध्यवसाय: स एव बंधहेतुः, इत्यवधारणीयं न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाबंधस्य तद्धत्वंतरमन्वेष्टव्यं । एकेनवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि, मारयामि
नामसंझ-दुक्खिदहिद, सत्त, ज, एवं, अज्भवसिद, तुम्ह, त, पापबंधग, वा, पुष्ण, वा, बंधग, सत्त, ज, एवं, अज्झवसिद, तुम्ह, आदि । धातुसंज्ञ—कर करणे, हो सत्तायां, मर प्राणत्यागे, जीव प्राणऔर प्रशुभका कारण दूसरा ही है । अज्ञानपने की अपेक्षासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें अध्यवसायोंको कर्मबन्धका हेतु बताया गया था। अब इन दो गाथावोंमें उन्हीं अध्यवसायोंकी विशेषरूपसे बंधहेतुताका अवधारण किया गया है।
तथ्यप्रकाश-१-रागमय अध्यवसाय प्रशानसे उत्पन्न होता है । २-अज्ञानमय मध्यवसाय कर्मबन्धका हेतु है । ३-पुण्यकर्म पापकर्म दोनोंके ही बंधका हेतु अध्यवसाय है । ४-दुःखी करने घात करनेके अशुभ अहंकारमें भी हेतु प्रशानमय अध्यवसाय है । ५-सुखी करने जीवन करनेके शुभ अहंकारमें भी हेतु अज्ञानमय अध्यवसाय है। ६--शुभ अशुभ इन दोनों अहंकारोंमें जीव शुद्धात्मभावनासे च्युत है । ७-शुभाहंकाररसनिर्भर अध्यवसाय पुण्यबन्धका हेतु है । -प्रशुभाहंकाररसनिर्भर अध्यवसाय पापबन्धका हेतु है । ६.. अन्य जीवके जीवन मरण सुख दुःख उन्हीं के उपाजित कर्मके उदयके निमित्तसे हैं । १०- निमित्तनैमित्तिक योग भी न हो फिर भी अन्धके कार्यका कर्ता किसी परको बताना असद्भूत व्यवहार है।
सिद्धान्त-१--पापबन्ध व पुण्यबंध दोनोंका हेतु प्रध्यवसाय है । २.-जीवोंको सुख
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