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________________ बन्धाधिकार ४४७ . इनि, मुख यामि, जीवयामोति च द्विधा शुभाशुभाहंकाररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोबंध. हेतुत्वस्याविरोधात् ।। २६०-२६१ ।। धाग्यो । प्रातिपदिक . दुःखितमुग्वित, गन्ध, यत्, एवं, अध्यबसित, युष्मद्, तत्, पापबन्धक, वा. पुण्य. वा, बन्धक, मत्त्व, यन, एवं, अव्यवसिन आदि पूर्वोक्त । मूसधातु- डुकृत्र करणे, भू मत्तायां. मृङ, त्यागे तुदादिः जीव प्राणधारगो । पद विवरण दुक्खिदसुहिदे दुःखितसुरिबतान-द्वितीया बहु० । सने सत्त्वानहि० बहु । करेमि करोमि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एका० । जं यत्-प्रथमा एकः । एवं-अव्यय । अझबसिहं अभ्यमित-प्रत ए० ते-पाठी एक० । तं तत-प्र० एक पापबंधगं पापबन्धक-प्र० एक० । वाअव्यय । पुण्णस्म पुण्यस्य-पप्ठी एक० । वा-अव्यय । बंधगं बन्धक-प्र००होदि भवति-वर्तमान न अन्य पुमा एक.. । मारिमि मारयामि-वर्तमान लट उत्तम पुरुष एकवचन णित क्रिया । जीवावेभि जीवयामि-वर्नमान लद उत्तम गुमप एकवचन णिजात क्रिया। सले सत्त्वान-द्वि. बहु० । जं यत-प्रथमा एकाकुचन । आदि गुक्ति ।। २६०-२६१॥ दुःख अादिका लाभ उनके उपाजित कर्मोके उदासे होता है । दृष्टि--१-- सादृश्यनय (२०२) । २-देवनय (१८४)। प्रयोग ----परके कर्तृत्वके अध्यवसायको अनर्थ जानकर दूर करना ।।२६०.२६१।। अब कहते हैं कि क्रियादिगर्भित अध्यवसाय हो बंधका कारण होनेसे हिसाका प्रध्यवसाय ही हिंसा है यह सिद्ध हुना- [सत्त्वान] जीवोंको [मारयतु] मारो [चा मा मारयतु] अथवा मत मारो [जीवानां] जीवोंका [बंधः] कर्मबंध [अध्यवसितेन अध्यक्षसायसे ही होता है [एषः निश्चयनयस्य बंधसमासः] निश्चयनयके मतमें यह बंधसंक्षेप है। तात्पर्य-अन्य पदार्थको परिणतिसे बन्ध नहीं होता, किन्तु विकारभाव होनेसे बन्ध होता है। टोकार्थ--परजीवोंके अपने कमोदयकी विचित्रतासे प्राणवियोग कदाचित् होवे अथवा न होवे परंतु ''यह मैं मारता हूं' ऐसा अहंकार रससे भरा हुआ जो हिंसाका अध्यवसाय है वही निश्चयरों उस अभिप्राय वालेके बंधका कारण है । क्योंकि निश्चयनयसे परभावरूप प्राणवियोग दुसरेके द्वारा नहीं किया जा सकता। भावार्थ-निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेके द्वारा नहीं किया जा सकता। उसके हो कर्मोदयकी विचित्रतासे कदाचित् होता है कभी नहीं भी होता । अतः जो ऐसा महंकार करता है "कि मैं परजीवको मारता हूं' आदि यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है । यही हिसा है, क्योंकि इस विकारसे अपने विशुद्ध चैतन्य प्राणका घात है । और यही बंधका कारण है। यह निश्चयनयका मत व्यवहारनयको गौएकर कहा जानना सर्वथा एकांत पक्ष मिथ्यात्व है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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