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समयसार एवं हि हिंसाध्यवसाय एवं हिसेत्यायातं
अभवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा वा मारेउ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥२६२॥
अध्यवासितसे बन्धन, प्राणी मारो तया नहीं मारो।
निश्चयनयके मतमें, जीवोंका बन्ध विवरण यह ॥२६२।। अध्यवसितेन बंधः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु । एष बंधसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ॥२६२।।
परजीवानां स्वकर्मोदयवैचिश्यबशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद् भवतु, कदाचिन्मा भवतु । य एव हिनस्मोत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बंधहेतुः निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कतु मशक्यत्वात् ।।२६२॥
नामसंज-अन्भवसिद, सतना ज न त, जीव, णिच्छयणय । धातुसंज-मर प्राणत्यागे । प्रातिपदिक-अध्यबसित, बन्ध, सत्व, मा, वा, एतत, बन्धसभास, जीव, निश्चयनय । मत्र प्राणत्यागे । पदविवरण-अज्झवसिदेण अध्यवसितेन-तृतीया एक० । बंधो बन्धः-प्रथमा एकवचन । सत्ते सत्त्वान्-द्वि० बहु० । मारेउ मारयतु-लोट् आशाद्यर्थे अन्य पुरुष एकवचन णित क्रिया। एसो एषः-प्रथमा एक० । जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु । णिच्छयणयस्स निश्चयनयस्य--षष्ठी एकवचन ॥२६॥
प्रसंगविवरण-अनन्सरपूर्व माथाद्वयमें अध्यवसायको बन्धहेतु बताया गया था। अब यह बताया जायगा कि प्रध्यवसाय ही पाप व 'पुण्य है । जिनमें से प्रथम हो इस गाथामें बताया है हिंसाविषयक अध्यवसाय ही हिंसा है।
तथ्यप्रकाश---१-जीवोंका प्राणवियोग उनके कर्मोदयकी विचित्रताके वश होता है । २-जो जीव अन्य जीवके प्रति "इसे मारू" ऐसा अध्यवसाय करता है उसे हिंसाका पाप लग ही गया, चाहे वह जीव मरे या न मरे । ३-हिंसाविषयक अध्यवसाय (अभिप्राय) ही निश्चयसे उसके बंधका कारण है व कर्मबन्धका मूल निमित्त कारण है । ४-निश्चयसे अन्यप्राणदियोगरूप परभाव किसी अन्य जीवके द्वारा किया ही नहीं जा सकता।
सिद्धान्त--१--नवीन कर्मबन्धका साक्षात् निमित्त कारण उदयागत द्रभ्यप्रत्यय (कर्म) है । २.-उदयागत द्रव्यप्रत्ययोंमें कर्मबन्धनिमित्तपना प्रावे इसका निमित्त अध्यवसाय है । ३--अध्यवसाय करनेसे आत्मा खुद ही अपनी विकृतियोंसे बुरा बँधा हुआ है ।
. दृष्टि-१--निमित्तदृष्टि (५३ अ)। २-निमित्तस्थानिमित्तदृष्टि (२१)। ३--अशुद्धनिश्चयनय (४७)।
प्रयोग---अपने अध्यवसायसे हो बंध होता है, ऐसा जानकर रागादिक अपध्यान छोड़