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________________ बन्धाधिकार प्रयाध्यवसायं पापपुण्ययोबंधहेतुत्वेन दर्शयति- ૪૪૨ एवमलिये यदत्ते अवभचेरे परिग्गहे चेव । कीरह प्रभवसाणं जं तेण दु बज्झए पावं ॥ २६३ ॥ तहवि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चैव । कीरह अवसाणं जं तेा दु वज्झए पुण्णं ॥ २५४ ॥ ( युग्मम्) यों ही अलोक चोरी, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहमें । अध्यवसान करे तो, उससे हो पाप बंधता है ॥२६३॥ वैसे सत्य चोरी, अपरिग्रह ब्रह्मचर्यमें जो कुछ । प्रध्यवसान करे तो उससे ही पुण्य बंधता है ॥२६४॥ एवम लोकेऽदब्रह्मचयं परिग्रहे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापं ॥ २६३|| तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यं ॥ २६४॥ | एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ता ब्रह्मपरिग्रहेषु I नामसंश- एवं, अलिय, अदत्त, अबंभचेर, परिग्गह, च, एय, अज्भवसाण, ज, त, दु, पाव, तह, वि. य, सच्च, दत्त, बंभ, अपरिममहत्तण, च, एव, अज्झवसाण, ज, त, दु, पुष्ण । धातुसंज्ञ कर करणे, बज्झ बंधने प्रातिपदिक एवं अलीक, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, च एव अध्यवसान, यत्, तत्, तु, पाप, कर अविकल्प ज्ञानमय श्रात्मस्वरूप में उपयोग लगाना ।। २६२ ॥ Taratrast goयपापके बंधका कारणपने रूपसे दिखलाते हैं - [ एवं ] इस [अलोके] प्रसत्य में [अदत्त ] परिग्रह में [यत् श्रध्यवसानं ] [ पापं बध्यते ] पाप बंधता है प्रकार याने जैसा पहले हिंसाका अध्यवसाय कहा था उसी प्रकार चोरो में [अब्रह्मचर्ये] कुशल संसर्ग में [परिग्रहे] धनं धान्यादिक जो श्रध्यवसान [ते] किया जाता है [ तेन तु] उससे तो [ अपि च ] और [ तथा ] उसी प्रकार [ सत्ये] सत्यमें [दत्त ब्रह्मचर्यमें [ अपरिग्रहत्ये एवं ] और अपरिग्रहृपने में [ यत् ] जो [ श्रध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते] किया जाता है [तेन तु] उससे [पुण्यं बध्यते] पुण्य बंधता है । ] दिया हुना लेने में [ ब्रह्मरिण ] तात्पर्य - दुराचार के प्रध्यवसायसे पाप व ब्रतके अध्यवसायसे पुण्यकर्म बंधता है । टीकार्थ -- ऐसे याने पूर्वकथित रीति से प्रशानसे जैसे हिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी प्रकार प्रदत्त, श्रब्रह्म, परिग्रह इनमें जो अध्यवसाय किया जाता है वह सभी केवल पापबंधका ही कारण है । तथा जैसे अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसी तरह सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इनमें भी अध्यवसाय किया जाता है वह सभी केवल पुण्यबंधका हो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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