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________________ समयसार यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबंधहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्य बंधहेतुः ।।२६ ३.३६४।। तथा, अपि च, सत्य, दत्त, ब्रह्मन, अपरिग्रहत्व, च, एवं. अध्यन्त्रमान, यत्, तत, नु, पुण्य । मूलधातु-- वा करणे, बन्ध बन्धने । पविवरण--एवं-अध्यय । अलिये अलीकेमातमी बहु० । अदस-सातमी एक० ! अबंभचेरे अब्रह्मचर्य-सप्तमी एक 1 परिगहे परिग्रहे-सप्तमी एक० । च एव-अव्यय । कीरइ क्रियते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य क्रिया। अज्झबसाणं अध्यवसान-प्रथमा एक । जं यत्-प्रथमा एक० । तेण तेन-तृ०ए० । दु तु-अव्यय । बझए बध्यते--वर्तमान० अन्य ः एकवचन कर्मवाच्य किया। पावं पाप-प्र० ए० । तह वि तथा अपि-अव्यय । सच्चे सत्ये-सः एक । दत्ते-म० ए० | बंभे ब्रह्मणि-सप्तमी एक० । अपरिहत्तणे अपरिग्रहत्वे-स० ए० कीग्द क्रियते--वर्तमान लट् अन्य पुमा एकवचन कर्मवाच्य किया । अज्झत्रसाणं अध्यवसानं-प्रथमा एक० । जं यत्--प्र० एकः । तेण तेन-तृ०प० । वदि बध्यते--पूर्वोक्त किया । पुष्णं पुण्यं-प्रथमा एकवचन ।। २६३-२६४ ।। कारण है । भावार्थ-जैसे कि हिंसामें अध्यवसाय पापबंधका कारण है, वैसे ही असत्य, अदत्त, अब्रह्म, परिग्रह इनमें भी अध्यवसाय पापबंधका कारण है। तथा जैसे अहिंसा में अध्यवसाय पुण्यबंधका कारण है, वैसे ही सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहपना इनमें किया गया अध्यबसाय पुण्यबंधका कारण है। इस प्रकार पांच पापोंका अभिप्राय तो पापबंध करता है और पाँच अतरूप एक देश व सर्व देशका अभिप्राय पुण्यबंध करता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि हिंसाविषयक अध्यवसाय ही हिंसा है। अब इन दो गायावों में बताया गया है कि जैसे हिसाविषयक सध्यवसाय हो हिंसा है ऐसे ही झूठ प्रादि विषयक अध्यबसाय ही झूठ प्रादिक पाप है व उससे पापका बंध । है । तथा इसी प्रकार अहिंसाके पुण्यत्वकी भांति सत्य आदिक पुण्य है व उससे पुण्यका बंध है। तथ्यप्रकाश-१--जैसे हिंसाविषयक अध्यवसाय अज्ञानसे होता है वैसे ही झूठ प्रादि विषयक अध्यवसाय भी अज्ञानसे होता है । २.जैसे अहिंसा (नहीं मारू) विषयक अध्यवसाय (अहंकाररसनिर्भर प्राशय) अज्ञानसे होता है वैसे ही सत्य आदि विषयक अहंकाररसनिर्भर प्राशय (अध्यवसाय) प्रज्ञानसे होता है । ३-हिंसादि पापविषयक अध्यवसाय पाएबन्ध का हेतु है । ४-अहिंसासस्यादि विषयक अध्यवसाय पुण्यबन्धका हेतु है । सिद्धान्त-१-अध्यवसाय जोधका अज्ञानमय परिणमन है। २-बत्तविषयक मध्यवसाय पुण्यकर्मके बन्धका निमिस है। ३-अवतविषयक प्रध्यवसाय पापकर्म के बन्धका निमित्त है । दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २, ३-- निमित्तदृष्टि (५३ प्र)। .
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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