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________________ बन्दाधिकार ४५१ न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बंधहेतुरिति शंक्यं-- वत्थु पडुच्च जं पुण अझवसाणं तु होइ जीवाणं । ण य वत्थुदो दु वंधों अज्झवसाणेण बंधोस्थि ॥२६५।। वस्तु अवलंब करके, होता अध्ययसित भाव जीवोंका। नहि बन्ध वस्तुसे है, है प्रध्यवसानसे बधन ॥२६॥ वस्तु प्रतीत्य बत्तुमर यवसानं तु भवति जीवानां । न च वस्तुतरतु बंधोऽध्यवमानेन बंबोस्ति ।।५।। अध्यवसानमेव बंध हेतुर्न तु बाह्यवस्तु तस्य बंधहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थस्वात् । तहि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। अध्यवसानस्थ हि बाह्म नामसंज्ञ- वत्थु, ज, पुण, अज्झवाण, तु, जीव, प, य, वत्युदो, दु, बंध, अझवसाय, बंध । धातु- संज- हो सत्तायां, पडि- इ गती, अस सत्तायां । प्रातिपदिक --बस्तु, यत्, पुनर, अध्यवयान, तु, जोव, न, प्रयोग–अशुभ व शुभ अध्यवसायोंको बन्धहेतु जानकर उनसे हटकर अविकल्प ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त होने का पौरुप करना ॥२६३.२६४।। अब कहते हैं कि दूसरी कोई बाह्य वस्तु बंधको कारण है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये-- [पुनः] और भी देखिये [जोबानां] जीवोंके [यत् अध्यवसान] जो अध्यवसान होता है वह [वस्तु] वस्तुको [प्रतीत्य] प्रवलंबन करके भवति होता है। [च तु] परन्तु वहाँ [वस्तुतः] वस्तुसे बंधः न च] बंध नहीं है, किन्तु [अध्यवसानेन] अध्यवसानसे ही [बंधः अस्ति] बंध है। टोकार्य - अध्यवसान हो बंधका कारण है, बाह्य वस्तु बंधका कारण नही है । क्योंकि बंधके कारणभूत अध्यवसानके ही कारणपनेसे चरितार्थपना है । प्रश्न-तो फिर बाह्यवस्तु का निबंध किसलिये किया जाता है ? समाधान-अध्यवमान के निषेधके लिये बाह्य वस्तुका त्याग कराया जाता है, क्योंकि बाह्यवस्तुका प्राश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको व्यक्त नहीं कर पाता । यदि बाह्य वस्तुका आश्रय न लेकर भी मध्यवसान उत्पन्न हो तो जैसे सुभटको माताके पुत्र सुभटका सद्भाव होनेसे उसका प्राश्रय लेकर किसोके अव्यवसान होता है कि मैं सुभटकी माताके पुत्रको मारता हूं उसी प्रकार बांझके पुत्र का प्रभाव होनेपर भी ऐसा प्रध्यवसान होना चाहिये "मैं बंध्यासुतको मारता हूं" मिन्नु ऐसा अध्यवसान लो उत्पन्न नहीं होता अर्थात् जब बंध्याका पुत्र ही नहीं है तो मारनेका अध्यवसान कैसे हो सकता है ? इस कारण बाद्यवस्तुके आश्रयके बिना मध्यवसान उत्पन्न नहीं होता; यह दृढ़ नियम बना । इसी कारण अध्यवसानका प्राश्रयभूत जी बाह्यवस्तु है उसका अत्यंत निषेध कराया गया;
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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