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पर्व रंग
गलेश व जन्म-परम्परा बैलती ही रहती है। अतः यह बात सुयुक्त है कि प्रकृति व पुरुष का भेदविज्ञान कर लेनेसे ही बलेश एवं जन्म परम्परासे मुक्ति हो सकती है ।
समयसारस्वरूप आत्मद्रव्य नित्य होनेपर भी इसकी परिणतियां प्रतिक्षण होती ही रहती हैं। आत्माका मुख्य लक्षण ज्ञान | ज्ञानस्वभावकी भी परिणतिय प्रतिक्षण होती रहती हैं। हम लोगोंकी ज्ञानपरिणतिथोंका नाम चित्तवृत्ति है। ये चित्तवृत्तियां क्षणिक हैं। वे आत्मस्वरूप नहीं हैं। आत्मद्रकी क्षणिक परिणतिया हैं। उन्हें ही जो आत्मद्रव्य समझते हैं वे इष्ट अनिष्ट कल्पना द्वारा रागो-द्वेषी होकर दुखी होते हैं। जो चित्तवृत्तियों का गौण कर इस अधिकार समयसार (शुद्ध आत्मतत्व) को अनुभवते हैं, वे दुःखोसे मोक्ष (निर्माण) प्राप्त करते हैं। अतः यह बात सूयुक्त है कि क्षणिक चित्तवृतियों में श्रात्माका श्रम समाप्त कर देनेसे ही निर्वाण प्राप्त हो सकता
परम- शुद्ध निश्चयसे देखा गया समयसार तत्व शाश्वत अविकार है । इस तत्वकी विकारीरूप में उपलब्धि करने की जब तक प्रकृति रहती है तब तक वह जीव दुखी है। जब निरपेक्ष निज चैतन्य स्वभावको द्रव्यशुद्धि में उपलब्धि कर विकारश्रमको समाप्त कर देता है तब आत्मा शांतिका अनुभव करता है। अतः यह निश्चित है कि विकारोंसे सम्बन्ध न होनेसे जीव शांति प्राप्त कर सकता है ।
समयसारको उपलब्धि न होनेके कारण जीवका उपयोग विरुद्ध कर्मों (दुकमों) में भ्रमण करता रहता है। और इन्हीं दुष्कमोंसे ही जीव सांसारिक यातनाएं सहता है। उनसे मुक्ति पाने का उपाय समयसारको दृष्टि है और यही निश्वयतः सत्कर्म है तथा जबतक जीव समयसारको निश्चल अनुभूति में नहीं रह पाता, तबतक इस अशान्तिका उपयोग दुष्कर्म न उठा लें। इसलिये दुष्कर्म से बचने के अभिप्रायसे व्यावहारिक सत्कर्मको प्रवृत्ति होती है | अतः यह सुयुक्त है कि सांसारिक यातनाओंके कारण भूत दुष्कर्मोोंसे मुक्ति पाना सत्कर्मसे ही सम्भव है ।
निविकल्प समयसारका परिचय जब तक जबकी नहीं है, वह विविध कल्पनेही उपयुक्त रहकर संसारका परिभ्रमण करता रहता है । विकल्पोंसे होने वाली भटकनकी निवृति निविकल्प ज्ञानपरिणाम से ही सम्भव है । अतः यह बात भी सुयुक्तिक है कि संसार परिभ्रमणकी निवृत्ति निर्विकल्प समाधिसे ही हो सकती है। निर्विकल्प समाधि समयसार के आलम्बनमें होती है।
इस प्रकार अनेकों दार्शनिक इस समयसार में ही सन्तोष पाते हैं। उनके उद्देश्यको पूर्णता भी इसी समयसार - में होती है । हे आत्मन् ' ऐसा अद्भुत विलक्षण, अलौकिक सारभूत परमब्रह्मस्वरूप समयसार हस्तगत हुआ है, हाथ आया है तो इसकी अनवरत दृष्टि रखकर निर्दोष होते हुए तुम सहज आनन्दका अनुभव करो ।
ओ३म् शुद्धं चिदस्मि ! "शुद्धं चिदस्मि सहज परमात्मदन्यम् ।"
समसारकी महिमा अपूर्व है। इसका वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता। इसके शुद्ध अनुभव ही महिमा की अनुभूति होती है । जिनका परिणमन समयसार के पूर्ण अविरुद्ध हो गया है अर्थात् समस्त आत्मगुणोक पुर्ण शुद्ध विकास हो गया है, ऐसे देवाधिदेव परमात्माको और जो आत्म-गुणोके शुद्ध विकास में चल रहे हैं ऐसे गुरुओं को नमस्कार करता हूं, अर्थात् सर्वपरमेष्ठियों को नमस्कार करता है, जिनके स्वरूपचिन्तन व परम्पराप्राप्त उपकारों में धमा उपकृत हुआ हु ।
समयसार ग्रन्थ के मूल रचयिता पूज्य श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यको नमस्कार करता है । समयसार गाथाओं के हाईको आत्मख्याति टोकाद्वारा व्यक्त करने वाले पुज्य श्रीमदमृतचन्द्रसूरिको नमस्कार करता हूँ । समयसारगाथाओं के शब्दानुसार भाव एवं तात्पयंको तात्पर्यवृत्ति द्वारा व्यक्त करने वाले पूज्य श्रीमज्जयसेनाचार्यको नमस्कार करता जिनकी रचनाओं के आधार पर शान्ति मार्ग-प्रत्यय हुआ । अतः गृहवास सन १६४३ में आत्म-शान्तिके मागवर खलने का अधिक भाव हुआ ।
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छोड़कर व्रत प्रतिमा ग्रहण करने के अनन्तर ही उस रामय समयसारखं मनन करने परिणाम