________________
है, व परपर्यायसे असत् है पदार्थोक वालम्बनकालमें ही सत् है व आलंबित अर्थक विनाशकाल में निराश है, ऐसा नहीं मानना ।
(११-१२) ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञायकभावसे सत्त है, शेयभावसे असत् है अथवा अपने गुणसे सत् है परके गुणसे असत है । सब हो (स्व पर) भाव में मैं हूं, या मैं ही संच भाव हूं, ऐसा नहीं मानना ।
(१३-१४) ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञानशक्तिकी अपेक्षा नित्य है, ज्ञेयाकार विशेष पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है। ज्ञानरात्र आत्माको सर्वथा नित्य या अनित्य नहीं मानना ।
(१५-१६) ज्ञानमात्र आत्मा द्रव्यदृष्टि से अभेदात्मक है. व्यवहारष्टि से भेदात्मक है ।
अनेकान्तस्वरूप होकर भी प्रात्माको जानमात्र प्रसिद्धि क्यों की? लक्ष्यभूत आत्माको सुगमतया प्रसिद्धि के लिये अथवा ज्ञानमात्र एक भाव में ही गाभत अनन्त शक्तियोंका विकास प्रकट होने से ज्ञानमापनेकी मुख्यतासे आत्मा लक्ष्य हो जाता है। इसलिये ज्ञानमात्र आत्माकी प्रसिद्धि की। ज्ञानमात्र होकर भी अनेकान्तरूप क्यों बताया ? विषाद जानने के लिये, अघमा भेदरलत्रय व अभेदरत्नत्रयके उपदेशके लिये, अथवा उपाय-उपेयभावका चिन्तवन करने के लिए ज्ञानमात्र आत्माको अनेकान्तरूप प्रगट किया।
इस प्रकार निज शुद्ध आत्मतत्वस्वरूप समयसारको प्रतीति करके उसमें ही अनुष्ठान करना चाहिये । एतदर्थ परमार्थदृष्टि रखकर भावना करना चाहिए—मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव हूं, निर्विकल्प हूं, अखंड हूं, निरंजन हूं, सहजानन्दस्वरूप स्वसंवेदनसे गम्य हूं, राग-द्वेष-विषय-कषायादिसे रहित हूँ।
समयसारके परिजानका प्रयोजन समयसार निरपेक्ष आत्म-स्वभाव है। इसका अपरनाम सहजसिद्ध परमात्मा है। इस अविकार स्वरूपकी दृष्टि होनेपर परिणमन में भी अधिकारता प्रगट होती है। अधिकारता ही सत्य आनन्दकी अमोघ जननी है। समस्त दार्शनिकोंके प्रयोजनकी सिद्धि इस समयसारके परिचयमें हो जाती है। समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व अविकार है, नित्य है, भेददृष्टिसे परे होनेके कारण एक है। आत्म-गुणों में व्यापक होने से 4 आत्म-गुणोंसे बढ़ने के कारण बहा है। ऐसा स्वभाव होते हुए भी कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है सो आत्मा भी परिणमनशील है। अत: इस आत्माकी पर्यायें होती हैं। वे पर्याय अनित्य है। अत: मायारूप कही जाती है। इसतरह ब्रह्म और मायाको सन्धि है । अविकार होते हुए भी यह मायाका आधार है। यह रहस्य जिन्हें प्रकट हो गया ये विवेकी है और फिर मायाकी दृष्टि न रख कर जो एक परम ब्रह्मकी दृष्टि रखते हैं बे परमविवेकी हैं। समयसारके परिज्ञानका प्रयोजन निर्विकल्प समाधि की सिद्धि है जिसके बलसे समस्त कर्म-कलकोसे मुक्ति, पूर्ण ज्ञानकी सिद्धि द अनन्त आनन्द की निष्पत्ति होती है।
समयसारमें दार्शनिक संतोष प्रत्येक आत्मामें समयसार सत्व है। इसे परम ब्रह्म परमेश्वर कहते हैं। इसकी पर्यापोंका मूल आधार यह ही है । इस प्रकार प्रत्येक आत्माओंकी सृष्टिका कारण उन्हीं में विराजमान परम ब्रह्म परमेश्वर है । शुद्धनयको दृष्टि में अनेकता नहीं है । अतः इस पद्धति में यह अभिप्राय मुयुक्ति युक्त है कि जिस परमब्रह्म परमेश्वरने अपनी सृष्टि की है, उस परम पिताकी उपासनासे ही दुखोंकी मुक्ति हो सकती है। समयसारको उपासना के बिना दुःखोंसे मुक्ति नहीं हो सकती।
स्वभावतः अधिकार होकर भी प्रकृतिजन्य विभायों में एकत्वका अभ्यास होनेसे नाना भबोंके अवतार रूपोंमें यह समयसार पुरुष प्रगट हा है। प्रकृति (कर्म व औपाधिक भाव) व पुरुष का जबतक भेदशान नहीं होता तबतक