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अज्ञान भावोंसे परे हूं. शुद्ध ज्ञानमात्र हूं। इस अनुभबके बलसे चूकि शुद्धज्ञानकी संचेतना हो रही है अतः पूर्वरच कर्म निष्फल हो जाता है. आगामी कर्मबन्ध रुक जाता है और वर्तमान कर्मविपाक भी बिना दे निकल जाता है। शानी जीवके अज्ञानचेतना नहीं है, वह शान क्रियासे अतिरिक्त अन्यको में करता हूँ ऐसी सदेतना रूप कम-चेतना नहीं करला । और ज्ञानक्रियासे अतिरिक्त अन्य भावोंको मैं भोगता है ऐसी संपेवनारूप कर्मफल-चेतना भी नहीं करता।
___ज्ञानचेतना ही मोक्षका कारण है । ज्ञानके शरीर नहीं है इसलिये शारीरकी प्रवृत्ति-निति रूप कुछ भी भष। मोक्षका कारण नहीं है। हां यह बात अवश्य है कि शान वेतनाके उपयोग वाले जीवको इतमी प्रबल ज्ञानाराधना की रुचि होती है, कि रागभाव गये, अब बाह्यमें परिग्रहको कौन संभाले । सो देहका निग्रंय निष्परिग्रह वेप हो जाता है। फिर भी ज्ञानचेतना ही मोक्षका कारण है, क्योंकि वह आत्माश्रित है। हलिग मोक्षका कारण नहीं, क्योंकि वह पराश्रित है। इसलिये निरिग्रह निन्यस्वरूप द्रव्यलिंगसे गुजर कर भी देहलिगकी ममतासे दूर रहकर एक समयसारका हो अनुभव करना चाहिए । जो समयमा रमें स्थित होता है वही सहज उत्तम शानन्दको प्राप्त करता है।
स्थाद्वार (परिशिष्ट) अधिकार यह अधिकार पूज्य श्री अमूलचन्द्र जी मूरि व पूज्य श्री अयमेनावाने स्वतन्य रचना द्वारा प्रकट किया है। कि वस्तुको सिटि स्याद्रादसे होती है, अत: ज्ञानमात्र दृष्टि से देग्ने गये जानमात्र आत्माको म्याद्वाहसे
उपयोग करना चाहिये । प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील होने के कारण प्रतिक्षण परिणमता ही रहता है । सो यह ज्ञानमाय आत्मद्रम्प भी प्रति समम परिणमता रहता है। अब इस ही प्रसंगमें ज्ञानमात्र आत्मा दो दृष्टियोंसे देखा जा रहा है--(१) ज्ञानशक्ति द्वारसे निश्चयनव द्वारा, (२) ज्ञानपरिणमन (याकार) द्वारसे व्यवहारनय द्वारा । पदार्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावात्मक होता है । इस कारण सत्वका विचार द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चार दृष्टियोंसे भी होता है प्रकारको पोजिम संकेतोंरे माद मर जान मात्र आत्माको चिन धर्मों के द्वारमे प्रसिद्ध करता है उन्हें कहते हैं -(१) आत्मा तेंद्र प है, (२) आत्मा अतद्प है, (३) आत्मा एक है, (४) आरमा अनेक है, (५) आत्मा द्रव्यतः सत् है, (६) आत्मा द्रव्यतः असत् है, (७) आत्मा क्षेत्रात: सत् है, (4) आत्मा क्षेत्रतः असत् है (5) आत्मा कालत: सत् है, (१०) आत्मा कालत: असत् है, (११) आत्मा भावतः सप्त है, (३) आत्मा भायतः असत् है, (१३) आत्मा नित्य है, (१४) आत्मा पनित्य है, (१५) पारमा लभेदात्मक है, (१६) आरमा भेदात्मक है।
(१-२) आत्मा ज्ञानयन्तिसे तद्प है व ज्ञेयाकार परिणमनसे अत्तर प है, क्योंकि झेयाकार परिणमन स्पतिरेकी परिणमन है, अथवा शानमात्र आत्मा स्वस्तृरूपसे तद्रूप है व परवस्तुरूपसे अताप है । मैं जायकतासे भी शून्य हूं, ऐसा अथवा सर्व वस्तुओंसे भी तद पहूं ऐसा नहीं मानना।
(३-४) ज्ञानमात्र आत्मा अखण्ड एक ज्ञानस्वभावको अपेक्षा एक है, वह भयाकार पर्यायोंकी अपेक्षा अनेक है, शेयाकार मुझमें नहीं है ऐसा यह मे याकार मात्र हूं, ऐसा नहीं मानना ।
१५. शानमात्र आत्मा शाता द्रव्यको अपेक्षासे सत् है व गुण-पर्याय-रूप द्रव्यविभागकी अपेक्षा असत है अथवा ज्ञाता द्रव्यको अपेक्षा सत् है, वह ज्ञायमान परद्रध्यकी अपेक्षा असत् है। ज्ञाता ट्रध्य हौ परद्रव्यरूप है परद्रव्य सब ही में ज्ञाता द्रव्य हं ऐसा नहीं मानना।
(७.) जानमात्र आत्मा ज्ञानामा रहे प्रसे सत् है वह जयाकारक्षेत्रसे असत् है, अधचा स्वक्षेपसे सत * वनसभतरवस्त के क्षेत्रसे बसत है। परक्षेत्रगत शेपार्थपरिणमनसे ही मैं हूं. ऐसा बझयाकारका मुझ में मर्वथा स्थाग है ऐसा नही मानना ।
(इ.१०) ज्ञानमात्र प्रारमा काल-पर्यावसामान्यसे सत् है व काल-विशेषस असत. अथवा स्वपर्यायमे सत
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