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कर्तृकर्माधिकार ज्ञाता न कर्तेलि ततः स्थितं च ।।१७।। कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कतरि, दृद्वं विप्रतिषिध्यते यदि सदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-नेपथ्ये वत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किं ॥६८।। अथवा नानट्यतां तथापि । सम्यग्दर्शनज्ञान-प्रथमा व द्वितीया एकवचन । एतत्-द्वितीया एक० । लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही रहता है - कर्ता कर्ता इत्यादि । अर्थ-अन्तरंगमें अतिशयसे अपनी चैतन्यशक्तिके समूहके भारसे अत्यंत गम्भीर यह जानज्योतिस्वरूप अन्तस्तत्व ऐसा निश्चल व्यक्तरूप (प्रकट) हुमा कि पहले जैसे अज्ञान में आत्मा कर्ता था उस प्रकार अब कर्ता नहीं होता और इसके प्रज्ञानसे जो पुद्गल कर्मरूप होता था, वह भी अब कर्मरूप नहीं होता, किन्तु ज्ञान तो ज्ञानरूप ही हुप्रा और पुद्गल पुद्गलरूप रहा, ऐसे प्रकट हुमा । भावार्थ--. जब प्रारमा निज सहज अविकार ज्योतिका ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिण मन करता है, पुद्गम कर्ता नहीं बनता और फिर गुदगल पद्गलरूप ही रहता है, कर्मरूप नहीं परिणमन करता । इस प्रकार प्रात्माका यथार्थ ज्ञान होनेसे दोनों द्रव्योंके परिणामोंमें निमित्तनैमित्तिक भाव नहीं होता, इस प्रकार जीव और अजीव दोनों कर्ता-कर्मके वेषसे पृथक होकर निकल गये।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पक्षातिक्रान्तका स्वरूप बताया गया था। अब इस गाथामें निश्चित किया गया कि पक्षातिक्रान्त ही समयसार है ।
तस्य प्रकाश-(१), सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान यह केवल एक प्रात्मा हो है । (२) सर्वनयपक्षोंसे अखण्डित, विकल्पव्यापारशून्य सहजात्मस्वरूप समयसार है। (३) मुमुक्षु, सर्वप्रथम श्रुतज्ञानबलसे अपनेको ज्ञानस्वभावमय निश्चित करता है । (४) उससे फिर मुमुक्षु प्रात्मख्यातिके लिये इन्द्रियज व अनिन्द्रियज ज्ञानोंको परख्यातिका हेतुभूत निश्चित करता है । (५) जिससे कि पश्चात् मुमुक्षु मतिज्ञानतत्वको अपने सहजात्मस्वरूपके प्रभिमुख करता है । (६) तथैव मुमुक्षु ज्ञानमत बुद्धियोंको अनेकपक्षोंके मालम्बनसे अनेक विकल्पों द्वारा प्राकुलित करने वाली प्रवघारित करता है। (७) जिससे कि वह श्रुतज्ञान सत्वको भी प्रात्माभिमुख करता है। (८) मोक्षाभिलाषी प्रात्मा मति श्रुतज्ञानको प्रात्माभिमुख करता हुआ प्रत्यन्त अविकल्प होकर ज्ञानधन समयसारको अनुभवता है । (६.) सूर्य ताप द्वारा समुद्रजल उड़कर बादल बनकर भटक भटककर स्वनम्रतासे नीचे गिरकर निमग्नापथसे बहकर समुद्र में मिलकर स्थरूपस्थ हो जाता है । (१०) मोहताप द्वारा ज्ञानसमुद्रगत उपयोगजल उड़कर प्रज्ञ बनकर भटक भटककर विनयभावसे प्रन्तः प्राकर विवेकपथसे अनुभव में पान र ज्ञानपुंजमें मिलकर स्वरूपस्थ हो जाता है। (११) विकल्पक प्राणी कर्ता कहलाता है । (१२) करणक्रिया में