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समयसार
श्रात्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥ ६४|| विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलं । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति || ६५ ॥ यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेति स तु वेत्ति केवलं । यः करोति न हि वेति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ॥ ६६ ॥ ज्ञप्तिः करोतों न हि भासतेऽन्तः ज्ञम करोतिश्च न भासनेऽन्तः । ज्ञमिः करोतिश्च ततो विभिन्ने अवबोधने, डुलभष् प्राप्तौ भ्वादि पक्ष परिग्रह रह त्यागे भ्वादि चुरादि, भण शब्दार्थः । पदविवरणहातो और करनेरूप क्रिया जाननेरूप क्रियाक अन्दर नहीं प्रतिभासित होती इसलिय ज्ञमिक्रिया और करोतिक्रिया दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं है । भावार्थ - जिस समय जीव ऐसा परिणाम करता है कि मैं परद्रव्यको करता हूं, उस समय तो उस परिणमन क्रियाका कर्ता हो है ज्ञातामात्रकी स्थिति नहीं है । तथा जिस समय ऐसा परिणमन करता है कि वह परद्रव्यको जानता है उस समय उस जानन क्रियारूप ज्ञाता ही है वहाँ कर्तृत्वभाव नहीं है। प्रश्न- सम्यग्दृष्टिके जब तक चारित्रमोहका उद है तब तक कषायरूप परिणमन होता है, तब तक उसे कर्ता कहें या नहीं ? समाधान - प्रविरतसम्यग्दृष्टि आदिके परद्रव्य के स्वामित्वरूप कर्तृत्बका अभिप्राय नहीं हैं, परन्तु कर्मके उदयकी झांकीका कषायरूप परिणमन है, उसका यह ज्ञाता है, इसलिये प्रज्ञानसम्बन्धी कर्तृत्व अविरत सम्यग्दृष्टिके भी नहीं हैं तथापि निमित्तकी बलाघानता से विभाव परिणमनका फल कुछ होता है, किन्तु वह संसारका कारण नहीं है । जैसे जड़ कटनेके बाद वृक्ष कुछ समय तक हरा रहता है, परन्तु वह हरापन सूखने की ओर ही हैं, ऐसे ही मिथ्यात्वमूल कटने के बाद कुछ राग-द्वेष रहें, किन्तु वे मिटनेकी और ही हैं उतनेका भी स्वामित्व सम्यग्दृष्टिके आशय में नहीं हैं ।
नौर जितने हैं
कर्ता इत्यादि । अर्थ - निश्वयतः कर्ता तो कर्ममें नहीं है और कर्म भी कर्ता में नहीं है । इस प्रकार दोनोंका हो परस्पर अत्यन्त निषेध है तब क्या कर्ता-कर्म की कहीं स्थिति हो सकती है ? नहीं हो सकती । तब वस्तुकी मर्यादा व्यक्तरूप यह सिद्ध हुई कि ज्ञाता तो सदा ज्ञान में ही है और कर्म है वह सदा कर्ममें ही हैं। तो भी महो ! यह मोह ( अज्ञान ) नेपथ्य में क्यों नाचता है ? भावार्थं कर्म तो पुद्गल है, और जीव चेतन है । सो जीव तो पुद्गल में नहीं है और पुद्गल जीवमें नहीं है, तब इन दोनोंके कर्ता-कर्म भाव कैसे बन सकता है ? इससे जोव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, पुद्गलका कर्ता नहीं है और पुद्गलकर्म है, वह कर्म ही है। ऐसे ये दोनों प्रकट भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं तो भी अज्ञानीका यह मोह कैसे नाचता है कि मैं तो कर्ता हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है यह बड़ा अज्ञान है। इस श्रनहोनीपर प्राचार्य ने बत शब्द कहकर खेद प्रकट किया है। अथवा इस तरह मोह नाचे तो नाचो, परन्तु वस्तु