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________________ कर्तृकर्माधिकार २६५ बुद्धीरप्यवधीर्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यंतमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवंतमादिमध्यांतविमुक्तमनाकुलमेक केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरतमिवाखंडप्रतिभासमयमनंतं विज्ञानधनं परमातमान समयसारं विदानेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च ततः सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव । प्राकामनविकल्पभावमचलं पक्ष यानां बिना, सारो यः समयस्य भाति निभृतेरास्वाद्यमानः स्वयं । विज्ञानकरसः स एष भगवान्घुण्यः पुराण: पुमान, ज्ञान दर्शनमप्ययं किमया यापनकोय ।।६। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यग्नि जौघारच्युतो, दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजीघं बलात् । विज्ञानकरसस्तदेकर सिनामात्मानमात्मा हरन, सार । धातुसंज्ञ-लभ प्राप्तो, भण कथने । प्रकृतिशब्द-सम्यग्दर्शनज्ञान, एतत्, इति; केवलं, व्यपदेश, सर्वनयपक्षरहित, भणित, यत्, तत्, समयसार । मूलधातु - सम्-अंचु विशेषणे चुरादि, दृशिर प्रेक्षणे, ज्ञा __ अब ज्ञानसे च्युत हुमा यह पाल्भा ज्ञान में ही प्रा मिलता है-दूरं इत्यादि । अर्थअपने विज्ञानघन स्वभावसे च्युत यह प्रात्मा बहुत विकल्पोंके जालके गहन बनमें अत्यंत भ्रमण करता हुआ अब दूरसे ही मुड़कर विवेकरूप निम्न मार्गमें गमनकर जलकी भांति अपने आप अपने विज्ञानघनस्वभाव में आ मिला। कैसा है वह प्रान्मा ? जो विज्ञान रसके हो रसीले हैं उनको एक विज्ञानरसस्वरूप ही है । ऐसा प्रात्मा अपने आत्मस्वभावको अपने में ही समेटता हुमा गतानुगतताको पाता है याने जैसे बाह्य गया था वैसे ही अपने स्वभावमें पा जाता है। भावार्थ---जैसे समुद्रादि जलके निवासमें से जल सूर्यताप आदिके कारण च्युत होकर उड़ा उड़ा फिरा, फिर वह ढोला होकर गिरा तो वह वनमें अनेक जगह भ्रमता है, फिर कोई नीचे मार्गसे बह-बहकर जैसाका तैसा अपने जलके निवासमें आ मिलता है। उसी प्रकार आत्मा भी प्रज्ञान मोहादि अनेक संतापोंसे अपने स्वभावसे च्युत हा भ्रमण करता कोई सुयोग पाकर भेदज्ञान (विवेक) रूप नोचे मार्गसे अपने आप अपनेको लाता हुअा अपने स्वभाव रूप विज्ञानघनमें प्रा मिलता है। अब कर्जा-कर्मके संक्षेप अर्थक कलशरूप श्लोक कहते हैं-विकल्पकः इत्यादि । अर्थ-विकल्प करने वाला हो केवल कर्ता है और विकल्प केवल कर्म है, विकल्पसहितका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता । भावार्थ-जब तक विकल्पभाब है, तब तक कर्ताकर्मभाव है । जिस समय विकल्पका प्रभाव होता है उस समय कर्ता-कर्मभावका भी प्रभाव हो जाता है। ___यः करोति इत्यादि । अर्थ-जो करता है वह केवल करता ही है और जो जानता है वह केवल जानता ही है । जो करता है, वह कुछ जानता ही नहीं है और जो जानता है, वह कुछ भी नहीं करता है । ज्ञप्तिः इत्यादि । अर्थ----आननेरूप क्रिया करनेरूप क्रियाके अन्दर नहीं प्रतिभासित
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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