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जीवाजीवाधिकार
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भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरितरः कतरोपि । तथा च सति मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुगलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरितरः कतरोधि । तथा च सति तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावात् भवत्येव जीवाभावः । एवमेतत् स्थितं यद्वदियो भावा न जीव इति ।। ६३-६४।।
पदविवरण अथ - अव्यय । संसारस्थानां षष्ठी एक० । जीवानां पष्टी बहु० । तव षष्ठी एक० । भवंति - वर्तमान अन्य पुरुष बहु० । वर्णादयः - प्रथमा बहु० । तस्मात् पंचमी एक० । संसारस्था:- प्रथमा बहु० । जीवाः - प्रथमा बहु० । रूपित्वं द्वितीया एक० । आपन्ना: प्रथमा बहु० । एवं अव्यय । पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक० । जीवः - प्रथमा एक. । तथालक्षणेन-तृतीया एक० मूढमते संबोधने एक० । निर्वाणं द्वि० ए० । उपगतः श्रथमा एक अपव्यय च-अध्यय । जोवत्वं द्वि० ए० । पुद्गलः प्रथमा एक० । प्राप्तःप्रथमा एकवचन ।। ६३-६४ ।।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जीवका संसारावस्था में ही वर्णादिका तादात्म्य कोई माने तो . संसार अवस्था में तो जीवको रूपी मानना ही पड़ेगा । ( २ ) जिसे रूपो माना हो वह पुद्गल ही कहा जायगा यो संसारदशा में दुराग्रहीके मतमें जीव पुद्गल हो रहा। ( ३ ) संसारदशामें . जिसे (जीवको) पुद्गल माना तो अब यदि उसका निर्वाण माना जायगा तो श्ररूपी होने से यही कहना पड़ेगा कि पुद्गल ही जीव बन गया । ( ४ ) अथवा जो पुद्गल था वह शुद्ध हो गया तो यही कहना होगा कि पुद्गल शुद्ध हो गया, फिर तो कोष में से जीवका नाम ही निकल जाना चाहिये । (५) जीवका वर्णादिके साथ किसी भी अवस्थामें तादात्म्य माना ही नहीं जा सकता ।
सिद्धान्त - - ( १ ) मात्र संयुक्तसमवेत सम्बन्धसे वर्णादिकको जीवके बतानेकी रूढ़ि है । (२) श्रात्माका चैतन्यस्वभावके ही साथ शाश्वत तादात्म्य है ।
दृष्टि - १ - एकजातिद्रव्ये अन्यजातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार ( ११२ ) । २ - परमशुद्ध निश्चयन (४४, ४५ ) ।
प्रयोग — अपने आपको इस समय भी अविकार चैतन्यमात्र स्वरूपमें निरखकर चैतव्यमात्र अनुभवना जिसकी दृढ़ता के प्रतापसे अविकार पर्यायमय हो जाय ।।६३-६४॥
आगे इसी अर्थको विशेष रूपसे करते हैं-- [ एकं च] एकेन्द्रिय [1] द्वीन्द्रिय [रिण च] श्रीन्द्रिय [ चत्वारि ] चतुरिन्द्रिय [च पञ्चेन्द्रियाणि] और पंचेन्द्रिय [ जीवाः ] जीव तथा [वादरपर्याप्ततराः] वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब जो जीव हैं वे [नामकर्मणः ] सब ऐसी ही तामकमंकी [ प्रकृतयः ] प्रकृतियां हैं [ एताभिः च ] इन प्रकृतियोंसे हो [करणभूताभिः ]