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समयसार
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एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। वादरपज्जत्तिदरा पयडीयो मामकम्मरमा । एदाहि य. णिवत्ता जीवहाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमईहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ॥६६ ॥ (युग्मम)
• एक दो तीन चौ पं.चेन्द्रिय वादर व सूक्ष्म पर्याप्ती ।
अन्य अपर्याप्तादिक, हैं ये नामकर्मको प्रकृति ॥६॥ पौद्गल कर्मप्रकृतिसे, जोवस्थानादि ये रचित होते ।
फिर इन पौद्गलमावों-को कैसे जीव कह सकते ॥६६॥ एकच द्वे त्रीणि च चत्वारि च पंचेन्द्रियाणि जीवा: । वादरपर्याप्ततराः प्रकृतयो नामकर्मण: ।।६५।। एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भव्यते जीवः ।
निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव न त्वन्यत् । तथा जीवस्थानानि वादर सूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्ध दृश्यमानशरीराकारादिमूर्त्तकार्यानुमेयं च ।।
नामसंज-एक्क, च, दु, ति, य, चउ, पंच, इंदिय, जीव, वादरपज्जत्तिदर, पडि, णामकम्म, एत, य, णिवत्त, जीवट्ठाण, करणभूदा, पडि, पुग्गलमई, ता, कथं, जीव । धातुसंज्ञ---पूर पालनपूरमयोः, गल स्रवणे, भण कथने । प्रातिपदिक-एक, च, द्वि, त्रि, च, चतुर् च, पंचन, इन्द्रिय, जीव, वादरपर्याप्तेतर, प्रकृति, नामकर्मन्, एतत्, निवृत्त जीवस्थान, करणभूत, प्रकृति, पुद्गलमयी, तत्, कथं, जीव। करणस्वरूप होकर [जीवस्थानानि] जीवसमास [निर्वृतानि] रचे गये हैं [ताभिः] उन [पुद्गलमयीभिः] पुद्गलमय [प्रकृतिभिः] प्रकृतियोंसे रचे हुएको [जीवः] जीव [कथं] कैसे मिन्यते] कहा जा सकता है।
तात्पर्य-एकेन्द्रियादिक वादरादिक प्रकृतियोंसे रचे हुए जीवस्थानोंको निश्चयत: जीव कहा नहीं जा सकता ।
टीकार्थ-निश्चयनयसे कर्म और करणमें अभेदभाव होनेसे जो जिससे किया जाय वह वही है, ऐसा होनेपर जैसे सुवर्णका पत्र सुवर्णसे किया हुआ सुवर्ण हो है, अन्य कुछ नहीं उसी प्रकार जीवस्थान वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिया, पर्याप्त, अपर्याप्त नामको पुद्गलमयी नामकमकी प्रकृतियोंसे किये गये होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं तथा नामकर्मको प्रकृतियोंकी पुद्गलमयता मागममें प्रसिद्ध है और जो प्रत्यक्ष देखनेमें