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________________ जीवाजीवाधिकार एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिवृत्तल्वे सति तदव्यति. रेकाज्जीवस्थानरेवोक्तानि । ततो न वदियो जोव इति निश्चयसिद्धान्तः । . निर्वत्यते येन यदा किंचित्तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् । रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथंचनासि ॥३८॥ मूलधातु-निस्-वृतु वर्तने, परि-आप्ल व्याप्ती, इदि परमैश्वर्य, भण शब्दार्थः । पदविवरण एक-प्रथमा एक० । द्वे-प्रथमा द्वि० । त्रीणि-प्रथमा बहुः । चत्वारि-प्रथमा बहु० । पंच-प्रथमा बहु० । इन्द्रियाणि-- प्रथमा बहु० । जीवा:-प्रथमा बहु० । बादरपर्याप्तेतरा:-प्रथमा बहु । प्रकृतयः-प्रथमा ब० । नामकर्मण:षष्ठी एक० । एताभिः-सृतीया बहु० स्त्रीलिंग । निर्वृत्तानि-प्रथमा बहु० । जीवस्थानानि-प्रथमा बहु । भाने वाले शरीर प्रादि मूर्तिकभाव हैं वे पुद्गल कर्मप्रकृतियों के कार्य होनेके कारण अनुमान प्रमाणसे भी सिद्ध हैं । इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन-ये भी नामकमकी प्रकृतियों द्वारा किए गये होने पर उस पुद्गलसे अभेदरूप हैं इसी कारण जीवस्थानों की तरह इन्हें भी पुगलमय ही कहने चाहिए । इस कारण ये वर्णादिक जोय नहीं हैं, ऐसा निश्चयनयका सिद्धान्त है। यहाँ इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं—निर्वयते इत्यादि । अर्थ-जिस वस्तुसे जो पर्याय निष्पन्न होती है वह पर्याय उस वस्तुरूप ही है कुछ अन्य वस्तु नहीं है । जैसे यहाँ सोनेसे रचे गये खड़ाके (तलवारके) म्यानको लोग सोना ही देखते हैं, खड्गको तो सोनारूप किसी तरह भी नहीं देखते । भावार्थ--पुद्गलप्रकृतियोंसे रचे गये वर्णादिक भाष पुद्गल ही हैं जोव नहीं हैं। प्रब दूसरा काव्य कहते हैं--वर्णादि इत्यादि । अर्थ--वर्णादिक गुणस्थानपर्यन्त सभी भावोंको एक पुद्गलका ही निर्माए जानो जानो, इसलिये ये भाव पुद्गल ही होवो आत्मा नहीं, क्योंकि प्रात्मा तो विज्ञानधन है, ज्ञानका पिण्ड है, इस कारण पुद्गलसे अन्य है। प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व प्रकरणमें यह बताया गया था कि वर्णादिक भाव पुद्गलभय हैं जीवके स्वरूप नहीं, जीवके नहीं । अब इसी तथ्यकी युक्तिपूर्वक सिद्धिका इनदो गाथावों कपन है। तथ्यप्रकाश-(१) निश्चयसे कर्तादिको भांति कर्म व करण भी अभिन्न होते हैं । (२) जो जिसके द्वारा किया जाय वह वही निश्चयसे है । (३) सुवर्णके द्वारा सुवर्णाभूषण जो भी बना वह सुवर्ण ही है, इसी भांति सर्व पदार्थोसे यही तथ्य है । (४) वादर, सूक्ष्म, एके. न्द्रिय, प्रादि, पर्याप्त, अपर्याप्त इत्यादि नामकी नामकर्मप्रकृतियां पुद्गलमयी ही हैं उनके द्वारा दादर सूक्ष्म प्रादि भव बनते हैं सो ये वादर प्रादि भी पुद्गल ही हैं । (५) नामकर्म
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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