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________________ समयसार वर्णादिसामग्र्यमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य । ततोस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानधनस्ततोन्यः ॥३६॥ ॥६५-६६॥ करणभूताभिः-तृतीया बहु० । प्रकृतिभिः-तृतीया बहु० । पुद्गलमयीभिः-तृतीया बहु । ताभि:-प्रथमा : बहु । कथं-अव्यय । भण्यते-भावकर्मप्रक्रिया कर्मवाच्य वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवः-प्रथमा । एकवचन ।। ६५-६६॥ प्रकृतियोंका कार्य शरीराकार आदि मूर्त हैं इससे जान जाता है कि नामकर्मप्रकृतियां भी मूर्त हैं, प्रचेतन हैं । (६) चैतन्यस्वभावके अतिरिक्त अन्य जितने भी भाव हैं, विभाव हैं वे सब भोपाधिक हैं, पोद्गलिक हैं । (७) वस्तुतः वर्णादिक भाव जीव नहीं हैं। सिद्धान्त-(१) निश्चयसे कर्ता कर्म करण आदि कारक एक ही द्रव्यके होते हैं उन्हें भेद करके समझाया जाता है । (२) पुद्गलकार्यकर कार्य का पीलया है। दृष्टि--- १-- कारकारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २-- अशुद्ध निश्चयनय (४५-४७म)। प्रयोग-प्रपनेको पञ्चेन्द्रियादि किसी भी पर्यायमात्र अनुभव नहीं करके इन समस्त द्रव्यभावपर्यायोंसे पृथक् चैतन्यमान अनुभव करनेका भावपौरुष करना ॥६५-६६॥ .. अब कहते हैं कि इस ज्ञानधन प्रात्माके अतिरिक्त अन्य भावोंको जीव कहना सो सब ही व्यवहारमात्र है--[2] जो [पर्याप्तापर्याप्ताः] पर्याप्त, अपर्याप्त सूक्ष्माः च वावरा] सूक्ष्म, वादर [ये च एव आदि जो [देहस्य] देहको [जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञाएँ कहीं हैं वे सभी [सूत्रे] सूत्रमें [व्यवहारतः] व्यवहारनयसे [उक्ताः] कही गई हैं। तात्पर्य-पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर, सूक्ष्म प्रादि देहकी जोवसंज्ञायें व्यवहारनयसे कही गई हैं। टीकार्थ--वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त ऐसे शरीरको संज्ञावोंको सूत्रमें जीवसंज्ञा द्वारा जो कहा है वह परको प्रसिद्धिसे घृत के घड़ेकी तरह व्यवहार है । यह व्यवहार ईषत् प्रयोजनके लिये ही है । उसको दृष्टान्त द्वार स्पष्ट कहते हैं--जैसे कोई पुरुष ऐसा था कि जिसने जन्मसे लेकर घीका ही घड़ा देखा. या, धृतसे खाली भिन्न घट नहीं देखा, उसको समझानेके लिए ऐसा कहते हैं कि यह जो धृतका घट है, वह मिट्टीमय है, धृतमय नहीं है, ऐसे उस पुरुषके घटकी प्रसिद्धिसे समझाने वाला भी घृतका घट कहता है, ऐसा व्यवहार है । उसी प्रकार इस अज्ञानी प्राणीके प्रनादि संसारखे लेकर अशुद्ध जीव ही प्रसिद्ध है, शुट जीवको नहीं जानता, उसको शुद्ध जीवका सान करानेके लिए ऐसा सूत्र में कहा है कि जो यह वर्णादिमान जीव कहा जाता है, वह ज्ञानमय है, वर्णादि
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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