________________
शेषमन्यद्व्यवहारमार्श -
जीवाजीवाधिकार
१३७
पज्जत्तापज्जर जे सुहुमा वादराय जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते वबहारदो उत्ता ॥६७॥
पर्याप्त प्रपर्याप्तक, सूक्ष्म तथा वादरादि जो भि कही । देहकी जीवसंज्ञा, यह सब व्यवहारसे जानो ॥६७॥ पर्याप्ता पर्याप्ता ये सूक्ष्मा वादराश्च ये चैव । देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः ॥ ६७ ॥ यत्किल वादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुः पंचेन्द्रियपर्याप्त पर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः प्रयोजनार्थः परप्रसिद्ध्या घृतघटवव्यवहारः । यथा हि कस्यचिदाजून्मप्रसिद्ध केघृतकुम्भस्य तदितरकुंभानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुंभः स मृण्मयो न घृतमय इति
...नामसंज्ञ-पज्जतापज्जत, ज, सुहुम, वादर, य, ज, च, एव, देह, जीवसण्णा, सुत्त, वबहारदो उत्त । धातुसंज्ञ - दिह वृद्धी, वच्च व्यक्तायां वाचि । प्रातिपदिक-पर्याप्तापर्याप्त यत्, सूक्ष्म, बादर, च,
I
भय नहीं है । इस प्रकार उम्र अज्ञानी प्राणीके वर्णादिमान प्रसिद्ध है सो उस प्रसिद्धिसे जीव में वर्गादिमान् होनेका व्यवहार सूत्रमें किया है ।
अब इसी का कलशरूप काव्य कहते हैं--घृतकुम्भा इत्यादि । अर्थ - यह घृतका कुम्भ है, ऐसा कहनेपर भी जीव वर्णादिमान नहीं है, ज्ञानघन ही है ।
भावार्थ -- जिसने पहले घटको मृत्तिकाका नहीं जाना और घृतके भरे घटको लोक घृतका घट कहते हैं ऐसा सुना वहाँ उसने यही जाना कि घट घृतका ही कहा जाता है। उसको समझाने के लिए मृत्तिकाका घट जानने वाला मृत्तिकाका घट कहकर समझाता है। । उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जिसने जाना नहीं और वर्णादिकके सम्बन्धरूप हो जीव जाना, उसको समझानेके लिये कहा जाता है कि यह जो वर्णादिमान् जीव है । सो वह ज्ञानघन है, वर्णादिमय नहीं है ।
प्रसंगविवरण -- धनन्तरपूर्वं गाथा में बताया गया था कि वादर, गुक्ष्म, पर्यात, र्याप्त प्रादि सब पुद्गलमयी नामक प्रकृतियों द्वारा रची गई हैं, इस कारण वे सब पौगलिक हैं । इस चर्चा पर एक प्रश्न होना प्राकृतिक है कि फिर आगम में पर्याप्त, अपर्याप्त, वादर, सूक्ष्म आदि देहोंमें जीवका व्यपदेश क्यों किया गया है। इसी प्रश्नका उत्तर इस गाथा में दिया गया है ।
-
तथ्यप्रकाश - (१) वादर, सूक्ष्म श्रादि शरीरकी संज्ञावोंको जीवसंज्ञारूपसे आगममें कहने का प्रथमं प्रयोजन यह है कि साधारण लोग जीवको समझ जायें और उनकी हिंसा से
も