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________________ पूर्व रंग साधारणचिद्रूपतास्वभावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंत मनंतद्रध्यसकरेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनात् टंकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः । अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासम. त्पाद कविवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपा मतत्वैकस्वगत त्वेन माईते तदा दर्शनशानवारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगप जानन गच्छश्च स्वसमय वचन कर्मविशेषण । - तत् शब्दका पुल्लिगमें हिनीया विभक्तिका शववचन । हि-अव्यय । त्र-व्यय । परममयं---द्वितीया विभक्तिका एकवचन, कर्मकारक। प्रथम गाथामें समयके प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की थी वहाँ यह जिज्ञासा हुई कि समय क्या है, इसलिये प्रथम ही समयका स्वरूप कहते हैं--हे भव्य, जो [जीवः] जीव [चरित्र. दर्शनज्ञानस्थितः] दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें स्थित हो रहा है [तं] उसे [हि] निश्चयसे [स्वसमयं] स्वसमय [जानीहि] जानो । [च] और जो जीव [पुद्गलकमंप्रदेशस्थितं] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [२] उसे [परसमयं] परसमय [जानीहि] जानो । तात्पर्य-स्वभावमे स्थित ओ म है। परमानों स्थित जीव परसमय है। स्दसमय व परसमय दोनों अवस्थावोंमें प्यापक प्रत्यागात्मा समय है। टीकार्थ-जो यह जीव नामक पदार्थ है वह हो समय है । क्योंकि समय शब्दका ऐसा अर्थ है----'सम्' तो उपसर्ग और 'प्रय गती' धातु है उसका गमन अर्थ भी है तथा ज्ञान अर्थ भी है, 'सम्' का अर्थ एक साथ है। इसलिए एक कालमें ही जानना और परिणमन करना ये दो क्रियायें जिसमें हों वह समय है। यह जीव पदार्थ एक कालमें ही परिणमन करता है और जानता भी है इसलिए यही समय है। इस तरह दो क्रियायें एक काल में होती हैं । वह समय नामक जीव नित्य ही परिणमन स्वभावमें रहनेसे उत्पाद व्यय धौध्यकी एकतारूप-अनुभूति लक्षण वाली सत्तासे युक्त है । वह चतन्यस्वरूपी होनेसे नित्य उद्योतरूप निर्मल दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप है--चैतन्यका परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप है । अनंत धर्मोंमें रहने वाला जो एक धर्मी उससे उसका द्रव्यस्थ प्रकट हुप्रा है, क्योंकि अनंतधोको एकता ही द्रव्यत्य है । क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवृत्त हुए जो अनेक भाव उस स्वभावसे युक्त होनेसे उसने गुणपर्यायों को अंगीकार किया है। पर्याय तो क्रमवर्ती हैं और गुण सहवर्ती होते है और सवतीको अकमवर्ती भी कहते हैं। अपने और अन्य द्रव्योंके प्राकारके प्रकाशन करने में समर्थ होनेसे उसने समस्त रूपको झलकाने वाली एकरूपता पा ली है अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुणोंका प्राकार झलकता है, ऐसे एक मानके आकाररूप है । पृथक्-पृथक् जो अवमाहन, गति, स्थिति और वर्तनाको हेतुता तथा रूपित्व (द्रव्योंके गुण) के प्रभावसे और असाधारण चैतन्यरूप स्वभाव के सद्भावसे--प्राकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल-इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है, वह अनंत
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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