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________________ समयसार तत्र तावत्समय एवाभिधीयते-- जीवो चरित्तदंमणणाणहिउ तं हि मममयं जाण । पुग्गलकम्मपदेमट्टियं च तं जाण परसमयं ॥२॥ दर्शन ज्ञान भ्ररितमें, सुस्थित जीवोंको स्वसमय जानो। पाधिक मायाके, रुचियोंको परसमय जानो ॥२॥ जीवः चरित्रदर्शनहानस्थितः तं हि स्वममयं जानीहि । पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च त जानीहि परममयम् । योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्य क्यानुभूतिलक्षरण्या सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदित विशदहशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढेक(मत्वादुद्योतमानद्रव्यत्व: क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याय: स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यक रूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमितत्वरूपित्वाभावाद प्रकृतिशब्द--जीव. चरित्र, दर्शन, ज्ञान, स्थित, नत्, स्त्र. समय, पुद्गल, कर्म, प्रदेश, पर, समय । मूलधातु-~चर चरणे, हागर प्रक्ष, ज्ञा अवता धनें, को गतिाननी, जय ती । पदविवरण--जीवः-प्रथमा एकवचन । चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । तं-दि० ० । स्वसमयं-द्वितीया एकवचन, कर्मकारक | जानीहि-ज्ञा धातु लोट् लकारका मध्यम पुरुष एकवचन । पुद्गल कर्मप्रदेशस्थित-दिनीया एकशक्य है । अतः शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादक समयसार ग्रन्थकी रचनाके प्रारम्भमें पूज्य श्री कुन्द. चुन्दाचार्यने सिद्धभगवानका वन्दन किया है । तथ्यप्रकाश--(१) स्वाभाविक स्थिति ध्रुव हुमा करती है । (२) उपाधिरहित केवल की स्थिति अचल हुआ करती है । (३) सिद्धदशा गतिरहित स्थिति है, अतः सिद्धको उपमा देनेको अन्य कुछ है ही नहीं, हाँ यही कहा जा सकता है कि सिद्धदशा तो सिद्धदशाके हो समान है । (४) भावस्तुतिसे भक्तके पात्मामें प्रभुका स्थापन होता है । (५) द्रव्यस्तुतिसे दूसरे प्रात्मा भी अपने में प्रभुका स्थापन करते हैं । (६) समयसारकी प्रामाणिकताके ३ चिह्न निर्देशित हैं--(क) अनादिनिधन परम्परागत आगमसे इसका प्राकट्य है । (ख) सकल पदार्थ का साक्षात्कार करने वाले प्रभुकी दिव्यध्वनिसे प्रागम निकला है । (ग) स्वयं अनुभव करने वाले श्रुतकेवलियोंने इसे बताया है । (७) इस रखनाका प्रयोजन मोहविध्वंस है। सिद्धान्त-(१) सिद्धदशा कभी भी मिटती नहीं । (२) प्रभुस्तबनादिमें प्रात्मा अपने ही ज्ञान का परिणमन कर रहा है। दृष्टि- १- सादिनित्य पर्यायाथिक नय (३६)। २- कारककारनिभेदक सद्भूतव्यवहार (७२)। प्रयोग-सिद्ध भगवंतको अभिवन्दनाके समय अपनेमें यह ग्राशय दृढ़ करना चाहिये कि मुझे सिद्धभगवान होना हैं ।।१।।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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