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पूर्व रंग प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशकस्य प्राभृतालयस्याहत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहारणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते ॥१॥ भविष्यत् क्रिया उत्तम पुरुष एकवचन । समयप्रभृतं-कर्मकारक द्वितीया एकवचन । अहो--अव्यय । इद-- कर्मविशेषण। श्रुनकेवलिभणितं-कर्मविशेषण द्वितीया एकवचन ।। होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुनने वाले और स्वयं अनुभव करने वाले ऐसे श्रुतकेवली गणधर देवोंके द्वारा कहे जानेसे प्रमाणताको प्रास हुआ है, तथा समय अर्थात् सर्व पदार्थं अथवा जोब पदार्थका प्रकाशक है । और अरहंत भगवान्के परमागमका अवयव (अंश) है । ऐसे समयप्राभृतका अनादिकालसे उत्पन्न हुए अपने और परके मोह--अज्ञान मिथ्यात्वके नाश होने के लिये मैं परिभाषण (व्याख्यान) करूगा ।
भावार्थ--यहाँपर गाथासूत्र में प्राचार्य ने "वक्ष्यामि" क्रिया कही है, उसका अर्थ टोकाकारने "वच परिभापरणे' धातुसे परिभाषण लेकर किया है । उसका प्राशय ऐसा सूचित होता है कि जो चौदह पूर्व में ज्ञानप्रवाद नामा छठे पूर्वके बारह 'वस्तु' अधिकार हैं, उनमें भी एकएक बीस-बीस प्रामृत विकार है, उसमें दसवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभूत है, उसका परिभाषण प्राचार्य करते हैं । सूत्रोंकी दस जातियां कही गई हैं, उनमें एक परिभाषा जाति भी है । जो अधिकारको यथास्थान सूचना दे वह परिभाषा कही जाती है। इस समयनामा प्राभृतके मूल सूत्रोंका ज्ञान तो पहले बड़े प्राचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान प्राचार्योंकी परिपाटोके अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्यको था। इसलिये उन्होंने सभयप्राभृतके परिभाषासूत्र रचे हैं । वे उस प्राभृतके अर्थको हो सूचित करते हैं, ऐसा जानना । मंगलके लिये सिद्धोंको जो नमस्कार किया और उनका 'सर्व' ऐसा विशेषण दिया, इससे ये सिद्ध अनन्त हैं, ऐसा अभिप्राय दिखलाया और 'शुद्ध आत्मा एक ही है, ऐसा अन्य प्राशयका व्यवच्छेद किया । संसारीके शुद्ध प्रात्मा साध्य है, वह शृद्धाला साक्षात् सिद्ध है, उनको नमस्कार करना उचित ही है । श्रुतकेवलो शब्दके अर्थ में श्रुत तो अनादिनिधन प्रवाहरूप प्रागम है और केवली शब्द से सर्वज्ञ तथा परमागमके जानने वाले श्रुतकेवली हैं, उनसे समयप्राभृतको उत्पत्ति कही गई है । इससे ग्रंथको प्रामाणिकता दिखलाई, और अपनी बुद्धिसे कल्पित होनेका निषेध किया गया है । अन्यवादो छदास्थ (अल्पज्ञानी) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप अन्य प्रकारसे कहकर विवाद करते हैं, उनकी असत्यार्थता बतलाई है । इस ग्रन्थका अभिधेय तो शुद्ध प्रात्माका स्वरूप है, उसके वाचक इस ग्रन्धमें शब्द हैं, उनका वाच्यवाचक रूप सम्बन्ध है और शुद्धात्मा के स्वरूपकी प्राप्ति होना प्रयोजन है । शक्यानुष्ठान तो है ही।।
प्रसङ्गविवरण--- शुद्धात्मा होना साध्य है, और द्रव्यकर्म भावकर्म व नोकर्म (देह) से रहित शुद्धात्मा सिद्ध भगवान होना सहजसिद्ध शुद्धात्मतत्त्व समयसारको उपासनासे हो