________________
पूर्व रंग
५१
स्योन्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकलवरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदसे तथात्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानखेन स्वदते ||१५||
अखंडितमनाकुलं ज्वलदनं तमंतर्बहिः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलनिर्भर सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवर्णा खित्यलीलायितं ॥ १४ ॥ एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिनभीप्सुभिः साध्यशन कमायेन द्विषैकः प्रमुपास्यतां ॥ १५ ॥ अस्पृष्ट- द्वितीया एक कर्मविशेषण, अनन्यं द्वितीया एक कर्मविशेषण, अविशेष- द्वितीया एक० कर्मविशेषण अपदेश सूत्रमध्यं द्वितीया एक०, द्वितीय क्रियाके कर्मका विशेषण, पश्यति लट् वर्तमान अन्य पुरुष एक०, जिनशासनं द्वितीया एक कर्मकारक ||१५||
स्वाद लेता है, परन्तु इस तथ्यका अज्ञान होनेसे परज्ञेयमें प्रासक्त होकर, लुब्ध होकर मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञेयाभिमुखरूपसे ज्ञानको स्वादता है, ज्ञानाभिमुखरूपसे ज्ञानको नहीं स्वादता । (३) जैसे नमकीन पकोड़ी खाने वाला नमकका स्वाद ले रहा है, परन्तु प्रबुद्ध जन पकोड़ीका श्रासक्त होकर पकोड़ीका ही स्वाद मानता हुआ नमकको स्वादता है, नमकका स्वाद मानता
नमकको नहीं स्वादता है । (४) कोई केवल नमककी डलोको ही स्वादे तो वहाँ भ्रमको गुंजाइश नहीं, मात्र नमकका ही स्वाद अनुभवा जाता है ऐसे ही कोई केवल ज्ञानस्वरूपको ही जाने अनुभवे तो वहां भ्रमकी गुंजाइश नहीं, मात्र ज्ञानका ही स्वाद अनुभवा जाता है ।
सिद्धांत - (१) आत्मा ज्ञानस्वरूप है वह जाननका ही कर्ता है चाहे विकल्परूप जानन का कर्ता रहे, चाहे विकार जाननका कर्ता रहे । (२) अविकार मात्र ज्ञाता समयसारका द्रष्टा है ।
दृष्टि - १ - कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहारनय (७३) । २- शुद्धनय ( ४९ ) ।
प्रयोग - स्वाद तो सदा ज्ञानका ही लिया जा रहा, किन्तु परपदार्थों में, विषयों में सुख पानेका भ्रम होनेसे ज्ञेयोंकी प्रोर ही झुककर ज्ञानका स्वाद लिया जा रहा है अर्थात् ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका स्वाद लिया जा रहा है यह प्रक्रिया अनर्थकारी है । अतः इस तथ्यको जानकर सर्व परज्ञेयोंकी उपेक्षा करके अथवा परका ख्याल छोड़ करके मात्र ज्ञानस्वरूपका ज्ञान रखकर केवल ज्ञानका ही स्वाद लो ||१५||
अब अगली गाथाकी उत्थानिकारूप "एष ज्ञान" इत्यादि श्लोक कहते हैं । अर्थ-पूर्वकथित ज्ञानस्वरूप जो नित्य श्रात्मा है उसकी सिद्धिके इच्छुक पुरुषोंके द्वारा साध्य साधक भावके भेदसे दो तरह का होनेपर भी एकरूप ही सेवनीय है, उसे सेवन करो अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र साधक भाव है यही गाथामें कहते हैं
577-39