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समयसार यथा विचित्रव्यंजनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यंजनलुब्धानां स्वदते न पुनरभ्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्यातिर्भावेनापि । तथा विचित्रशेयाकारकरंबितत्वोपजातसामान्य विशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबद्धानां ज्ञेयलुब्धानां स्वदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं ज्ञानं तदेव सामान्याविर्भावनाप्यलुब्धबुद्धानां । यथा संघवखि. शासन, सर्व । मूलधातु---दृशिर् दर्शने, बधि बन्धने, स्पुश स्पर्शने । पदविवरण - यः-पुल्लिग प्रथमा एक० कर्ताकारक, पश्यति--लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, आत्मान-द्वितीया विभक्ति एकवचन कर्मकारक,
आस्वाद लेते हैं, जैसे कि व्यजनों (भोजनों) से जुदी सिर्फ लवणकी डलीका प्रास्वाद लेनेसे क्षारमात्र स्वाद जिस भांति प्राता है, उसी भाँति ग्रास्वाद लेते हैं। चूंकि ज्ञान है, वही आत्मा है और आत्मा है वही ज्ञान है, सो इस तरह गुणगुणीको अभेददृष्टि में पाया हुप्रा जो सब परद्रव्योंसे भिन्न, अपने सहज पर्यायोंमें एकरूप, निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, पर निमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने ज्ञानका जो अनुभव है वही आत्मानुभव है। यही अनुभव भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभव है । शुद्धनयसे इसमें कुछ भेद नहीं है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं----'अखंडित' इत्यादि । अर्थ-वह उत्कृष्ट तेज प्रकाशरूप हमें होवे, जो सदा काल चैतन्यके परिणमनसे भरा हुआ है । जैसे लवणकी इली एक क्षाररसकी लीसाका आलम्बन करती है, उसी भाँति जो तेज एक ज्ञानरसस्वरूपको पालम्बन करता है । जो कि तेज अखंडित है--- याने शेयोंके आकारसे खंडित नहीं होता; अना. कुल है अर्थात् जिसमें कर्मके निमित्तसे हुए रागादिकोंसे उत्पन्न प्राकुलता नहीं है; अविनाशी है; जो अंतरंगमें तो चैतन्यभावसे देदीप्यमान अनुभव में प्राता है और बाह्यमें वचनकायको क्रियासे प्रकट देदीप्यमान है, जो सदा सहज अानन्दविलासमय है, जिसे किसीने रचा नहीं है
और सदैव जिसका बिलास उदयरूप है; एकरूप प्रतिभासमान है, ऐसा चैतन्यतेज हमारे उपयोगमें रहे।
प्रसंगविवरण-...अनन्तरपूर्व यह कहा गया था कि शुद्धनयालिमका जो ज्ञानानुभूति है वही मास्मानुभूति है, अब उसीके समर्थन में कहते हैं कि जो ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रात्माको देखता है वह भावश्रुतज्ञानरूप सर्व जिनशासनको देखता है अर्थात् द्रव्यश्रुतके द्वारा वाच्य व भावश्रुत के द्वारा ज्ञेय जैनशासन के निष्कर्षरूप प्रादिमध्यान्तरहित समयसारको देखता है ।
तथ्यप्रकाश--(१) जिनशासन भावच नरूप है, भावभु तज्ञानरूप है, ज्ञानको अनुमति प्रात्मानुभूति है, अत: प्रात्मदर्शन सर्वजिनशासनका दर्शन है । (२) सर्वत्र जीव ज्ञानका ही