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________________ ૪૨ पूर्व रंग जो परसदियां बद्धपुठ्ठे श्रारणमविसेसं । पदेससुत्तमज्यं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ १५॥ जो लखता अपनेको, श्रबद्ध प्रस्पृष्ट अनन्य विशेष । मध्यान्त आदि अपगत, वह लघुता सर्व जिनशासन ||१५|| यः पश्यति आत्मानं अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । अपदेशसूत्रमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१५॥ स्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्यासंयुक्तस्य चात्मनोनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुगतः श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः, किन्तु तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदने । तथाहि नामसंज्ञ – ज, अप्प, अबद्धपुट्ट, अण्ण, अविसेस, अपदेसमुत्तमज्भु, जिणसासण, सव्व । धातुसंज्ञ पास दर्शने, सास शासने । प्रकृतिशब्द-यत्. आत्मन्, अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, अपदेशसूत्रमध्य, जिनविशेष व्यञ्जनमिश्रितका श्राविर्भाव ( प्रकटता ) रूपसे आ रहा लवण स्वादमें आता है । परन्तु अन्य के संयोग से उत्पन्न सामान्यके श्राविर्भाव तथा विशेष के तिरोभावसे एकाकार प्रभेदरूप लवका स्वाद नहीं श्राता । श्रौर जब परमार्थसे देखा जाय तब जो विशेषके भाविर्भाव से अनुभव में श्राया क्षार रसरूप लवण है, वही सामान्यके श्राविर्भाव से अनुभव में आया हुआ क्षार रसरूप लवर है । उसी तरह प्रबुद्ध ज्ञेयलुब्धोंको प्रनेकाकार ज्ञेयोंके ग्राकारोंकी मिश्रतासे जिसमें सामान्य का तिरोभाव और विशेषका घाविर्भाव ऐसे भावसे अनुभव में आ रहा ज्ञान विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप स्वादमें श्राता है, परन्तु ग्रन्य ज्ञेयाकारके संयोगसे रहित सामान्यका प्राविर्भाव और विशेषका तिरोभाव ऐसा एकाकार प्रभेदरूप ज्ञानमात्र अनुभवमें प्राता हुआ स्वादमें नहीं श्राता । और परमार्थसे विचारा जाय तब जो विशेष के प्राविर्भावसे ज्ञान अनुभव में आता है, वही सामान्यके श्राविर्भाव से ज्ञानियोंके और ज्ञेयमें अनासक्तों के अनुभवमें श्राता है । जैसे लवकी डली अन्य द्रव्योंके संयोगके प्रभावसे केवल लवणमात्र धनुभव किये जानेपर एक लवण रस सर्वतः क्षाररूपसे स्वादमें आता है, उसी तरह आत्मा भी परद्रव्यों के संयोग से भिन्न केवल एक भावसे अनुभव किये जानेपर सब तरफसे एक विज्ञानघन रूप होने के कारण ज्ञानरूपसे स्वाद में प्राता है । भावार्थ - यहाँ ज्ञानको अनुभूतिको श्रात्मानुभूति कहा गया है। अज्ञानी जन इन्द्रियज्ञानके विषयों में ही लुब्ध हो रहे हैं, अतः विविध ज्ञेयोंके प्रतिफलन से अनेकाकार हुए ज्ञानका ही शेयों में प्राकर्षित होते हुए प्रास्वादन करते हैं, ज्ञेयोंसे भिन्न सामान्य ज्ञानमात्रका आस्वाद नहीं लेते। और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें प्रासक्त नहीं हैं, वे ज्ञेयोंसे भिन्न एकाकार ज्ञानको ही
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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