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पाठ १८-अवाप्ति नय पदार्थ को शीघ्न सुगमविधिसे नि:संशय यथार्थ समझने के लिये अन्य भी दृष्टियां याने नय हैं। इन नयों में जो अभेदारक नय हैं भे निश्चय नय हैं, जो भेदपरक नय हैं वे व्यवहार गय हैं । इन अवाप्तिनयों का निर्देश २२३ पाठ में १५२ न० से २० नं० तकके नयों में किया जावेगा।
पाठ १६ निमित्तकारण व प्राधयभत कारण का विवेक निमित्तका सही प्रयोग करने में और नयष्टि परखने में जहाँ अनेक परिचय ज्ञातव्य है वहाँ कुछ प्रसंगों में निमित्त कारण व आधयत कारणका अन्तर भी ज्ञातव्य है। निमित्त कारण उसे कहते हैं जिसका नमित्तिक कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध हो जैसे क्रोध प्रकृति का विपाक (उदय या उदीरणा) होनेपर ही जीवमें कोष विकल्प होना, कोचप्रकृतिविमाक न होनेपर क्रोधविकल्प नहीं होना । वह अन्वयष्यतिरेक सम्बन्ध कर्मविपाकमें है अत: क्रोधप्रकृतिविपाक क्रोध निमित्त कारण है। तथा जिस व्यक्तिपर उपयोग देकर क्रोध प्रकट हो उसे आश्रयभुतकारण कहते हैं। आथयभूत कारणका विकारके साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध नहीं, किन्तु उपयोग देकर कारणा बनाया गया, अतः आगभूत कारण आरोपित कार है, समरिसर: है. कारण नहीं ।
यहां यह ज्ञातव्य है कि निमित्त उपादानमें कुछ परिणति नहीं करता, किन्तु ऐसा योग है कि निमित्त कारगके सानिध्य में ही विकार होता, निमित्त कारण के अभाव में विकार नहीं हो सकता । आश्रयभूत कारण उपादानमें भी कुछ परिणति नहीं करता और बाश्रयभूत विषयके न होनेपर विकार न हो और विषयभूत पदार्थ के होने पर ही विकार हो या विषयभूत पदार्थ के होनेपर विकार हो हो हो ऐसा कुछ भी नियन्त्रधा नहीं है । हाँ प्रकृति के उदय होनेपर यह जीव यदि विषयभूत पदार्धपर उपयोग देता है तो विकार व्यक्त होता है उपयोग न दे तो विकार व्यक्त नहीं होता, प्रकृति के उदय होने पर व विषयभूत पदार्य पर उपयोग न होने पर प्रकृतिविपाकविमित्तक विकार अध्यक्त होकर निकल जाता है।
विकारसे हटना व स्वभाव लगना यह अनादिसे विषयप्रेमी इस जीवको कैसे बने ? जब तक विकारसे घृणा न होनब तक विकारसे हटना संभव नहीं । विकारसे घणा तब बनेगी जब यह ज्ञान में आ जाये कि विकार असार है, अपवित्र है, परभाव है और यह ज्ञान तब बने जद विकार नैमिसिक है यह बात जात हो। विकार नैमित्तिक है यह शाम तत्र बने जब निमितका नैमिनिक से अन्ययध्यतिरेक सम्बन्ध ज्ञात हो। इस तरह निमितका नैमित्तिकका पथार्थ ज्ञान भितिक विकारसे हटने के लिए प्रायोजनिक है।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि साधयमत पदार्थ विकारका निमित नहीं है, किन्तु व्यक्त विकारके लिये आश्रय भून हा व्यवहारमें उसे निमित्त कह देते हैं । सो आययभूत कारणको निमित्त बताकर, उदाहरणमें रख-रखकर निममा मर्वथा खण्डन करना या तो अज्ञानमुलक है या पहिले आश्रयभूतको ही निमित्त समझकर उसका खण्डन काली चले आये थे, मो अब वास्तविक निमिसकी बात सामने आने पर भी उसी हठको निभाना कपरमूलक है। निमय विकारका कर्ता नहीं, किन्तु निमिससानिध्य बिना विकार होता नहीं। यों निमित्तकारण व आषयभूतकारणका बिकानेर, नबस्टियोजना, व आता हित के लिए प्रयोगविधि सही बन जाती है।
पा४२०-व्यवहार का विवेक व्यवहार शब्दका प्रयोग व्यवजारनयनामक द्रव्याधिकनय, भेदविषयक व्यवहारनय, नविषयप्रतिपादक व्यवहार व उपचार न चार स्थलोंपर होता है। अनः जहाँ व्यवहार शब्द आवे वहाँ यह विवेक करना अत्यावश्यक है कि यह
बार उन चारोंमें से कौनसा है । यदि यह विवेक न रखा ज्ञावे और उपचार वाले व्यवहारको मिथ्या कहा है सो मी नानको मर्वत्र व्यवहारमें अपनाकर आदिके तीनों व्यवहारोंको मिथ्या कह दिया जाये तो सई आगम शास्त्र मिच्या मानने गड़गे । अत: यवहारका विवेक अत्यावश्यक है।
उनः वाणे व्यवहारोंका स्पष्टीकरण पाठ नं. ५, ६, ७, १०, ११, १२, १५, १६, १७ में किया है । उसे