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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार विभागपरिणत्या च संयतो भवति तदैव च परात्मनोरेकल्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति ।। भोक्तृत्वं न स्वभाबोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः । अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।। १६६।।
अयाणओ अज्ञायक:-प्र० ए०। हवे भवेत्-विधिलिङ अन्य पुरुष एक० । मिच्छाइट्ठी मिथ्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । असंजओ असंयत:-प्र० ए० । कम्माफलं कर्मफल-द्वितीया एक० । अर्णतयं अनंतक-द्वितीया एका० । विमुत्तो विमुक्त:-प्र० ए० । हवइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक जाणओ ज्ञायकः प मुणी मुनिः-प्रथमा एकवचन ।। ३१४-३१५।।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व छन्दोंमें बताया गया था कि जीव भेदविज्ञान के अभावसे प्रकृतिके निमित्त अपना विचित्र उत्पाद विनाश करता हुमा बद्ध और संसारी बनता है। अब इन दो छन्दोंमें बताया है कि यह जीव जैसे ही कर्मफलको छोड़ देता है वैसे ही यह ज्ञाता द्रष्टा संयमी निर्बन्ध होता है ।।
तथ्यप्रकाश-(१) जब तक जीवके प्रात्मस्वभाव व कर्मस्वभावके विषयमें यथार्थ ज्ञान नहीं है तब तक जीव रागादिकर्मोदयरूप प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता है । (२) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह रागादिरूप अपनेको श्रद्धान करनेसे मिथ्यादृष्टि है । (३) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह चौतन्यमात्र अपनेको न जाननेसे अज्ञानी है । (४) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह अपनेको रागादिरूप अनुभवनेसे रागादिरूप आचरण करनेसे असंयमी है। (५) जब तक जीवके परभावमें प्रात्मत्वका प्रध्यास है तब तक वह कर्ता होता है । (६) जब यह जीव प्रात्मस्वभाव व कर्मस्वभावके प्रतिनियत स्वलक्षणका यथार्थ ज्ञान कर लेता है तब यह जीव प्रकृत्यर्थको अर्थात् कर्मफलको छोड़ देता है 1 (७) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा शुद्धबुद्ध कस्वभाव प्रात्म. तत्वका श्रद्धानी होनेसे सम्यग्दृष्टि है । (८) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा भूतार्थ अन्तस्त. त्वका ज्ञाता होनेसे सम्यग्ज्ञानी है । (8) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्वके अनुरूप ज्ञानवृतिरूप परिणमनेसे संयमी है । (१०) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा मात्मस्वभाव व कर्मस्वभावमें एकत्वका मध्यास न कर सकनेसे अकर्ता है ।
सिद्धान्त-(१) भेदविज्ञानके प्रतापसे प्रात्मा स्वरूपको उपलब्धि करता है । (२) कर्मफलको त्यागकर ज्ञानवृत्तिमात्रसे परिणमनेके प्रतापसे प्रातमा कर्मसे विमुक्त होता है।
दृष्टि--१-- ज्ञानमय (१६४) । २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४व) ।
प्रयोग-प्रकृतिस्वभाव रागादिभावको छोड़कर चैतन्यचमत्कारमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग लगाना ।। ३१४-३१५ ।।