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________________ ५३६ समयसार अण्णाणी कम्मफलं पयसिहादु वेदे | गाणी पुण कम्मफलं जागइ उदियं ण वेदेइ || ३१६॥ अज्ञानी विधिफलको, प्रकृतिस्वभावस्थ होय अनुभवता । ज्ञानी उदित कर्मफल को जाने भोगता नहि है ॥ ३१६ ॥ अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते । ज्ञानी पुनः कर्मफल जानाति उदितं न वेदयते ॥ ३१६ ॥ अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्त्रपरयो' रेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसन् । वात्स्वपरयोविभागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेय नामसंज्ञ - अण्णाणि, कम्मफल, पर्याडिसहावद्विअ, णाणि, पुण, कम्मफल, उदिय, ण धातुसंज्ञवेद वेदने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-अज्ञानिन् कर्मफल, प्रकृतिस्वभावस्थित, तु, ज्ञानिन् पुनर् कर्मअब ज्ञानीके भोक्तृत्वका निरूपण करते हैं— [अज्ञानी] प्रज्ञानी [ प्रकृतिस्वभावस्थितः ] प्रकृति के स्वभावमें ठहरता हुआ [ कर्मफलं ] कर्मके फलको [वेदयते] भोगता है [पुनः] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [ उदितं ] उदयमें प्राये हुए [कर्मफलं ] कर्मके फलको [जानाति ] जानता है [तु] परन्तु [न बेदयते] भोगला नहीं है । तात्पर्य - भज्ञानी तो कर्मविपाकमें प्रात्मीयबुद्धिसे परिरगत होकर कर्मफलको भोगता हैं, किन्तु ज्ञानी कर्मफलको परभाव जानकर अपने ज्ञानस्वभाव के श्रभिमुख होता हुआ कर्मफल को मात्र जानता है, भोगता नहीं । टीकार्थ - प्रज्ञानी निश्चयसे शुद्ध प्रात्माके ज्ञानके अभाव के कारण स्व-परके एकपने के ज्ञानसे स्व-परके एकत्वके श्रद्धानसे और स्व-परके एकपनेकी परिणति से प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे प्रकृतिके स्वभावको ही श्रहंबुद्धिपनेसे अनुभव करता हुम्रा कर्मके फलको भोगता है । परन्तु ज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके सद्भाव के कारण अपने औौर परके भेदज्ञानसे, अपने परके विभाग के श्रद्धानसे और स्व-परकी विभागरूप परिणति से प्रकृतिके स्वभाव से दूरवर्ती होने से शुद्ध श्रात्माके स्वभावको एकको ही महंरूपसे अनुभव करता हुआ उदयमें माये हुए कर्मके फलको ज्ञेयमात्रता के कारण जानता ही है, पुरन्तु उसका श्रहंरूपसे अनुभव किया जानेके लिये शक्यता होने से भोगता नहीं है । भावार्थ - प्रशानीको शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान नहीं है, इस कारण जो कर्म उदयमें आता है उसीको अपना स्वरूप जान भोगता है, और ज्ञानीके शुद्ध घात्मानुभव हो गया है, इस कारण प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता सो उसका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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