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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५३७ मात्रत्वात् जानात्येव न पुनस्तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वादयते । श्रज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धात्ममये महस्यचलितरासेव्यतां ज्ञानिता ।। १६७।। ।। ३१६ ।। फल, उदित, न । मूलघातु - विद चेतनाख्यातनिवासेषु ज्ञा अवबोधने । पदविवरण – अण्णाणी अज्ञानीप्रथमा एक. 1 कम्मफल कर्मफल- द्वितीया एक० 1 पर्याडिसहाबद्विओ प्रकृतिस्वभावस्थितः प्र० एक० | दु तु पुण पुनः ण न अव्ययं । वेदेइ वेदयते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । कम्मफलं कर्मफलं - द्वि० एक० । जाणइ जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । उदिय उदितं द्वि० ए० । वेदेश वेदयते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१६ ॥ ज्ञाता ही रहता है भोक्ता नहीं होता । अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं— अज्ञानी इत्यादि । अर्थ-- श्रज्ञानी जीव प्रकृतिस्वभाव में लीन होता हुआ सदाकाल उसका भोक्ता है, और ज्ञानी प्रकृतिस्वभावसे विरक्त रहता हुआ कभी भी भोक्ता नहीं है । सो इस प्रकार तत्त्वनिपुण पुरुषोंको ज्ञानीपने और अज्ञानीपने नियमको विचार करके अज्ञानीपने को तो बड़ा चाहिये और शुद्ध आत्ममय एक तेज ( प्रताप ) में निश्चल होकर ज्ञानीपनेको सेवना चाहिये । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व दो छन्दोंमें बताया गया था कि जब तक जीव प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता है तब तक वह अज्ञानी है और जब हो कर्मफलको अर्थात् प्रकृतिस्वभाव को छोड़ देता है तब ही वह निर्बंन्ध ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है । अब इस गाथामें उस अज्ञानीही व ज्ञानीके विषय में बताया है कि अज्ञानी तो कर्मफल भोगता है और ज्ञानी मात्र कर्मफलको जानता है । अहंरूपसे अनुभव करता है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) प्रज्ञानीको सहज शुद्ध प्रात्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है । (२) शुद्धा 'मत्वका ज्ञान न होनेसे अज्ञानी स्व व परमें एकत्वका ज्ञान दर्शन व परिणमन करता है । ( ३ ) स्व- परमें एकत्वका ज्ञान श्रद्धान परिगमन होनेसे जीव प्रकृतिस्वभाव में स्थित कहलाता है । ( ४ ) प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे जीव प्रकृतिस्वभावको ( ५ ) प्रकृतिस्वभावको प्रहंरूपसे अनुभवता हुआ जोव कर्मफलको भोगता है । (६) ज्ञानीको सहज शुद्ध आत्मस्वरूपका ज्ञान है । ( ७ ) शुद्धात्मस्वरूपका ज्ञान होनेसे ज्ञानी के स्व व परमें भिन्नताका ज्ञान है, भिन्नताका श्रद्धान है मोर विभागरूपसे परिणमन है । ( ८ ) स्वपरविभाग का ज्ञाता प्रकृतिस्वभावसे हट जाता है । (E) प्रकृतिस्वभावसे हटने के कारण ज्ञानी शुद्ध सहज 'प्रात्मस्वरूपको ही रूप से अनुभवता है । ( २० ) एक शुद्धात्मस्वरूप को अहंरूप से अनुभवता हुआ जीव उदित कर्मफलको ज्ञेयमाश्रपना होनेसे मात्र जानता है । ( १२ ) कर्मफल में श्रहंरूपसे
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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