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समयसार अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यते--
ण मुयइ पयडिमभन्यो सुट्ठवि अज्झाइऊण सत्थाणि । गुडदुद्धपि पिबंता ण पण्णाया णिब्बिसा हुंति ॥३१७॥ नहिं छोड़ता प्रकृतिको, अभध्य अच्छे भि शास्त्रको पढ़कर ।
गुड़ दूध पान कर ज्यौं, न सर्प निविष कभी होते ॥३१७॥ न मुंचति पहलिमय: मुष्णपि अधीय गाय । भुडदुग्धमाप पिबंतो न पन्नगा निविषा भवति ॥३१७||
यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुञ्चति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न मुञ्चति । तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभाव स्वयमेव न मुञ्चति प्रकृतिस्वभावमोचनसम.
नामसंज्ञ –ण, पयडि, अभब्व. सुटु, वि, सत्थ, गुडदुद्ध, पि, पिवंत, ण, पण्णय, णिविस । धातुसंज्ञ--मुंच त्यागे, अहि इ अध्ययने, हो सत्तायां । प्रातिपदिक---न, प्रकृति, अभव्य, सुष्ठु, अपि. शास्त्र, गुडदुग्ध, अपि, पिवन्त, न, पन्नग, निविष । मूलधातु- मुख्तृ मोक्षणे, अधि इङ अध्ययने अदादि, पा पाने म्वादि, भू सत्तायां। पद विवरण--ण न सुठु सुष्टु वि अपि-अव्यय । मुयइ मुंचति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पडि प्रकृति-द्वितीया एक० । अभब्बो अभव्यः-प्रथमा एकवचन । अज्झाइऊण अनुभव किया जाना अशक्य होनेसे ज्ञानी जीव कर्मफलको भोगता नहीं है ।
सिद्धान्त-(१) अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता है । (२) ज्ञानी कर्मफलका मात्र साक्षी है । दृष्टि-१- भोवतृनय (१६१) । २- अभोक्तृनय (१९२) ।
प्रयोग--विकारको अपनानेसे दुःख भोगना पड़ता है यह जानकर परभाव विकारसे उपेक्षा करके शुद्ध एक प्रात्ममय चैतन्यमें उपयोगको स्थिर करना ।। ४१६ ॥
अब अज्ञानी भोक्ता ही है ऐसा नियम कहते हैं- [अभव्यः] प्रभव्य [सुष्टु] अच्छी तरह [शास्त्राणि शास्त्रोंको [अधीत्य अपि पढ़कर भी [प्रकृति न मुञ्चति प्रकृतिको अर्थात् प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता [पन्नगाः] जैसे कि सर्प [गुडदुग्धं] गुड़सहित दूधको [पिबंतः प्रपि] पीते हुए भी [निविषाः] निविष [न भवति नहीं होते।
तात्पर्य-विकारमें अहंपनेका श्रद्धान होनेसे शास्त्रोंको पढ़कर भी प्रभव्य विकारके लगायको नहीं छोड़ता, अतः वह कर्मफलको भोगता ही है।
टोकार्थ---जैसे इस लोकमें सपं अपने विषभावको स्वयं नहीं छोड़ता तथा विषभावके मेटनेको समर्थ ऐसे मिश्रीसहित दूधके पोनेसे भी नहीं छोड़ता उसी तरह प्रभव्य वास्तवमें प्रकृतिस्वभावको स्वयमेव भी नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावके छुड़ानेको समर्थ द्रव्यश्रुतके ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता। क्योंकि इसके नित्य ही भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञानका प्रभाव होने