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________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ५३६ र्यद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुञ्चति नित्यमेव भावश्रुतज्ञान लक्षण शुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात् । 7 तो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव ।। ३१७ ।। अधीत्य - असमाप्तिकी क्रिया कृदन्त, सत्याणि शास्त्राणि द्वितीया बहु० । गुडदुद्ध गुडदुग्ध द्वितीया एक० । पिता पिबन्तः - प्रथमा बहु० । पण्णया पन्नगाः प्रथमा बहु० । जिव्विसा निर्विषाः प्रथमा बहु० । हुति भवंति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ।। ३१७ ।। से अज्ञानीपन है । इसलिये ऐसा नियम किया जाता है कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव में ठहरनेसे कर्मका भोक्ता ही है । भावार्थ - इस गाथा में "अज्ञानी कर्मके फलका भोक्ता ही है” यह नियम किया गया है । जैसे कि प्रभव्य बाह्य कारणोंके मिलनेपर भी कर्मके उदयको अपनाने का स्वभाव नहीं बदलता, इस कारण यह सिद्ध हुआ कि अज्ञानीको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं, अतः श्रज्ञानीके भोक्तापनेका नियम बनता है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता होता है और शानो कर्मफलका भोक्ता नहीं । अब इस गाथा में अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता हो है ऐसा नियम युक्ति दृष्टान्तपूर्वक दर्शाया गया है । - तथ्य प्रकाश – (१) अभव्य जीव सदा प्रभ्थत्व अशुद्ध पारिणामिक भावमय होनेसे प्रकृतिस्वभावको याने कर्मविपाकलगावको स्वयं छोड़ता ही नहीं । (२) प्रकृतिस्वभावको छुड़ाने में समर्थ द्रव्य श्रुतज्ञान है सो श्रुतका विशिष्ट अध्ययन होनेपर भी वह नहीं छूटता । ( ३ ) भव्य जीवको भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञान नहीं होनेसे सदा प्रज्ञान ही रहता है । ( ४ ) सदा अज्ञानमय होने के कारण प्रभव्य जीव सदा प्रकृतिस्वभाव में स्थित रहा करते हैं । ( ५ ) प्रकृतिस्वभावमें स्थित रहने के कारण प्रभव्य जीव कर्मफलका भोक्ता होता ही है । सिद्धान्त - ( १ ) अभव्य जीव सदा अज्ञानमयभाववान रहनेसे विकारजगाव बनाये रहता है । (२) मिथ्यात्वोदयवश श्रुताध्ययन करके भी ग्रभव्य शुद्ध नहीं हो पाता । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४७) । २ - उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ) | प्रयोग — सहजात्मस्वरूपकी व्यक्तिके लिये अपने आपको सहज प्रनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध ग्रन्तस्तत्त्व जानकर इसी स्वरूपकी घोर उपयोग लगाना ।। ३१७ ।। अब ज्ञानी कर्मफलका प्रवेदक ही है, यह नियम किया जाता है - [ज्ञानी] ज्ञानी [ निर्वेदसमापनः ] वैराग्यको प्राप्त हुआ [ मधुरं कटुकं ] मोठा तथा कड़वा [ अनेकविधं] इत्यादि अनेक प्रकारके [कर्मफलं ] कर्मके फलको [विजानाति ] जानता है [ तेन ] इस कारण [स] वह [अवेदकः भवति ] भोक्ता नहीं है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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