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समयसार
ज्ञानी त्ववेयक एवेति नियम्यते--
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेइ । महुरं कडुयं बहुविहमवेयश्रो तेण सो होई ॥३१८॥ वैराग्यप्राप्त ज्ञानी, मधुर कटुक विविध कर्मके फलको ।
जानता मात्र केवल, इससे उनका प्रवेदक वह ॥३१॥ निर्वेदसमापनो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति । मधुरं फेटुकं बहुविधमवेदको तेन सः भवति ॥३१॥
ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्धावेन परतोऽत्यंतविविक्तत्वात प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुंचति ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्त
नामसंज्ञ-णिब्वेयसमावण्ण, णाणि, कम्मफल, महुर, कडुय, बहुविह, अवेयअ, त, त । धातुसंझ-- वि जाण अवबोधने, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-निवेदसमापन्न, ज्ञानिन्, कर्मफल, मधुर, कटुक, बहुविध,
तात्पर्य-ज्ञानी रागादिभावोंको परभाब जानकर उनसे लगाव नहीं रखता, प्रतः कर्मफलका केवल ज्ञाता रहनेक कारण वह कमफलका भोक्ता नहीं होता।
टोकार्थ---जानी अभेदरूप भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके होनेसे परसे अत्यन्त विरक्तपना होने के कारण कर्मके उदयके स्वभावको स्वयं ही छोड़ देता है । इस कारण मीठा कड़वा सुख दुःखरूप उदित कर्मफलको ज्ञातापन होनेके कारण केवल जानता ही है । न कि ज्ञानके होनेपर पर द्रव्यको अहंरूपसे अनुभव करनेको अयोग्यता होनेके कारण भोक्ता होता है । अतः ज्ञानी कर्मस्वभावसे विरक्तपना होनेसे अवेदक ही है । भावार्थ----जो जीव जिससे विरक्त होता है वह उसको अपने वश तो भोगता नहीं है यदि परवश भोगना ही पड़े तो उसे परमार्थतः भोक्ता नहीं कहते, इस न्यायसे चूकि ज्ञानी कर्मके उदयको अपना नहीं समझता, उससे विरक्त है, सो वह स्वयमेव तो भोगता ही नहीं, यदि उदयकी बलवत्तासे परवश हुमा अपनी निबंलतासे कर्मविपाकको भोगे तो उसे वास्तवमें भोक्ता नहीं कहते । जीव कर्मानुभाग का तो व्यवहारसे भोक्ता है, और कर्मप्रतिफलनका प्रशुद्ध निश्चयनयसे भोक्ता है, उसका यहाँ शुद्ध नयके कथनमें अधिकार ही नहीं है।
. अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं---ज्ञानी इत्यादि । अर्थ- ज्ञानी जीव कर्मको न तो करता है और न भोगता है, मात्र कर्मस्वभावको जानता ही है । इस प्रकार ज्ञानी केवल जानता हुमा कर्तृत्व और भोवतृत्वके अभावके कारण शुद्ध स्वभावमें निश्चल हमा वास्तव में मुक्त ही है। भावार्थ--मानी कर्मका स्वाधीनपनेसे कर्ता भोक्ता नहीं वह तो