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सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार
५४१ त्वादवेदक एवं ।। ज्ञानो कशति ननवेदयत च कम जानाति केवलमयं किल तत्स्वभाव । जानन्परं करणवेदनयोरभावात् शुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव ।।१६।। ।। ३१८ ॥ अवेदक, तत्, तत् । मूलधातु-वि ज्ञा अवबोधने, भू सत्तायां । पदविवरण-णिधेयसमावणो निवेदसमापन्न:-प्रथमा एकवचन । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एकवचन। कम्-मफलं कर्मफल-द्वितीया एक० । बियाणेइ विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । महुरं मधुरं कडुयं कटुकं बद्दविहं बहुविध-हिए। अवेर ओ अवेदक:- इ.टमा एक० । तेण तेन-तृतीया एक० । सो स:-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१८ ।।
केवल ज्ञाता ही है, इस कारण शद्ध स्वभाव में उपयुक्त हुना वह अन्त: मुक्त ही है। कर्मका उदय प्राता है, प्रतिफलन होता है वहाँ ज्ञानी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं, सो जब तक यह निर्बलता रहती है तब तक कर्म जोर चला लें, कभी तो ज्ञानी कर्मका निर्मूल नाश करेमा ही । तथा वर्तमान में शुद्ध स्वभाव में नियत है सो मुक्त-सा ही है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता हो है । अब इस गाथामें बताया है कि जानी कर्मफलका अभोक्ता है अर्थात् भोक्ता नहीं है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अभेदभावश्रुत ज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञान जिसके है वह ज्ञानी है। (२) ज्ञानी परसे अत्यन्त जुदा है, अतः प्रकृतिस्वभावको स्वयं ही छोड़ देता है । (३) जिसने प्रकृतिस्वभावको छोड़ दिया है वह उदित शुभाशुभ कर्मफलका मात्र ज्ञाता है। (४) ज्ञानी परद्रव्यको महंरूपसे अनुभव करनेमें असमर्थ है, अतः कर्मफलको नहीं भोग सकता । (५) जहाँ प्रकृतिस्वभावसे विरक्ति है, संसार शरीर भोगसे विरक्ति है वहां प्रकृतिस्वभावसे लगाव नहीं हो सकता । (६) ज्ञानी शुद्धात्मभावनाजन्य सहज प्रतीन्द्रिय आनन्दको छोड़कर इन्द्रियसुखमें कर्मफलमें नहीं लग सकता।
सिद्धान्त-(१) भेदविज्ञान व अभेदान्तस्तत्त्वकी प्रतीति होनेसे ज्ञानी कर्मफलका मात्र साक्षी है, भोक्ता नहीं । (२) ज्ञानोकी दृष्टिमें परभावके नाते शुभ अशुभ कर्मफल परतत्त्व हैं ।
दृष्टि-१- अभोवतृनय (१६२)। २- सादृश्यनय (२०२)।
प्रयोग-पुण्य पाप कर्मविपाकको परभाव जानकर उसका मात्र ज्ञाता रहकर निष्कर्म ज्ञानस्वरूप स्वतस्वमें उपयोग लगाना ।। ३१८ ॥
अब ज्ञानीके हातृत्वको फिर पुष्ट करते हैं-[ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि कर्माणि] बहुत प्रकारके कर्मोको [नापि करोति] न तो करता है [नापि वेयते] और न भोगता है [पुनः] परन्तु [बंध] कर्मके बन्धको [च] और [कर्मफलं] कर्मके फल [पुण्यं - पापं] पुण्य