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समयसार गावि कुबइ गवि वेयइ णाणी कम्माई बहुपयाराई । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥३१६॥ नहि कर्ता नहि भोक्ता, ज्ञानी नाना प्रकार कर्मोका ।
जानता मात्र विधिफल, बन्ध तथा पुण्य पापोंको ॥३१॥ नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि । जानाति पुनः कर्मफल बंधं पुण्यं च पापं च ॥
ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमक स्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च ! किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंध कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।। ३१६ ।।
नामसंज्ञ---ण, वि, ण, वि, णाणि, कम्म, बहुपयार, पुण, कम्मफल, बंध, पुण्ण, च, पाव, च । धातुसंज्ञ-कुब्व करणे, वेद वेदने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक ....न, अपि, न, अपि, ज्ञानिन्, कर्मन्, बहुप्रकार, पुनर्, कर्मफल, बन्ध, पुण्य, च, पाप, च । मूलपातु-डुकृत्र करणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण –ण न वि अपि पुण पुनः च-अव्यय । कुम्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। वेयइ वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया 1 जाणइ जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन । बंधं बंधं पुण्णं' पुण्यं पावं पापंद्वितीया एकवचन ।। ३१६ ।। और पापको [जानाति] मात्र जानता ही है ।
तात्पर्य-कर्म कार्मारणवर्गरणाके स्कन्ध हैं उन्हें जीव कैसे करेगा व कैसे भोगेगा और ज्ञानी तो कर्तृत्व भोवतृत्वके विकल्पसे भी रहित है सो ज्ञानीके कर्मका करना व कर्मफलका भोगना विकल्पतः भी सम्भव नहीं, ज्ञानी तो उनको मात्र जानता ही है।
टीकार्थ----कर्मचेतनाशून्यपना होनेसे तथा कर्मफलोतनासे भी शून्यपना होनेसे स्वयं अकर्तृत्व व प्रभोक्तृत्व होनेसे ज्ञानो कर्मको न तो करता है और न भोगत्ता है, किन्तु ज्ञानी ज्ञानचेतनायुक्त होनेसे केवल ज्ञाता ही है, इस कारण कर्मके बन्धको तथा कर्मके शुभ अशुभ फलको केवल जानता ही है । भावार्थ--ज्ञानो दिकारका व पुण्य पाप कर्म प्रादिका मात्र झाता रहता है।
प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानी कर्मफलका अबेदक ही दर्शाया गया था । अब उसी ज्ञानीको स्वच्छता बतानेके लिये इस गाथामें बताया है कि ज्ञानी कर्मोंको न तो करता है और न भोगता है, किंतु वह तो पुण्य-पाप कर्मबंध कर्मफलका मात्र ज्ञाता रहता है ।
___ तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानी सहज शुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी वृत्तिरूप रहनेसे कर्मधेतनाशून्य है । (२) ज्ञानी शुदात्मभावनाजन्य सहजानन्दरससे तृप्त होनेके कारण कर्मफल