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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कुत एतत् ?--
दिही जहेव णाणं अकास्यं तह अवेदयं चेव । जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चे ॥३२०॥ ज्ञान नयनदृष्टी ज्यौँ, होय प्रकर्ता तथा प्रभोक्ता भी।
बन्ध मोक्ष कर्मोदय, निर्जरको जानता वह है ॥३२०॥ दृष्टिः यर्थव ज्ञानमकारक तथाऽवेदकं चैव । जानाति च बंघमोक्ष कर्मोदयं निर्जरा चैव ॥ ३२० ॥
____ यथात्र लोके दृष्टि श्यादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करावेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति ___न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्संधुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य लोडपिंडवत्स्वयमेवीप्ण्यानु
नामसंज्ञ--दिट्टि, जह, एव, णाण; अकारय, तह, अवेदय, च, एव, य, बंधमोक्ख, कम्मुदय, णिज्जर, च, एव । धातुसंज-जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-दृष्टि, यथा, एव, ज्ञान, अकारक, तथा, अवेदक, च, चेतनाशून्य है । (३) ज्ञानी कर्मचोतनाशून्य होनेसे अकर्ता है । (४) ज्ञानी कर्मफलचेतनाशून्य होनेसे अभोक्ता है । (५) ज्ञानी ज्ञानचेतनामय होनेसे शुभ अशुभ कर्मबंध व कर्मफलका मात्र जानन हार है । (६) अकर्ता अभोक्ता होनेसे शुद्धस्वभावमें नियत ज्ञानी अन्तर्वृत्तिको अपेक्षा मुक्त ही की तरह है ।
सिद्धान्त-(१) निर्विकार अनन्तज्ञानादिसम्पन्न प्रभु पूर्णतः ज्ञानचोतनामय हैं । (२) सहनशुद्ध अन्तस्तत्त्वके अनुभवी प्रतीत्या ज्ञानचेतनामय है ।
दृष्टि -... १- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४५) ।
प्रयोग-कर्मों की प्रकृति कर्ममें ही निरखकर कर्मोके मात्र ज्ञाता रहना और अपनेको ज्ञानस्वरूपसे अभिन्न निरखकर प्रात्मस्वरूपका संचेतन करना ।। ३१६ ।।
. प्रश्न---शानी मात्र ज्ञाता ही कैसे है ? उत्तर- [दृष्टिः यथा] नेत्रकी तरह [ज्ञान] ज्ञान [प्रकारकं च अवेदकं एव] प्रकर्ता और अभोक्ता ही है [तथा] तथा [बंधमोक्षं] बंध, मोक्ष [च कर्मोदयं] व कर्मोदय [च] और [निर्जरा] निर्जराको [जानाति एव] मात्र जानता
तात्पर्य--ज्ञानका काम जानना ही है, परको करना व भोगना नहीं है।
टीकार्थ---जैसे इस लोक में नेत्र देखने योग्य पदार्थोंसे अत्यन्त भिन्नताके कारण उनके करने और भोगनेकी असमर्थता होने के कारण दृश्य पदार्थको न तो करता है और न भोगता है । अन्यथा याने यदि ऐसा न हो तो अग्निको जलाने वालेकी तरह व अग्निसे तलायमान लोहके पिंडकी तरह अग्निके देखनेसे नेत्रके कर्तापन व भोक्तापन अवश्य आ जायगा सो तो है