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समयसार भवनस्य च दुनिवारत्वात् । किंतु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्व केवलमेव पश्यति । तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टुत्वात् कर्मणोऽत्यंतविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कम न एव, च, बन्धमोक्ष, कर्मोदय, निर्जरा, च, एव। मूलधातु-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-दिट्ठी दृष्टि:प्रथमा एकवचन । .जह यथा एव तह तथा च एव य च-अव्यय । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक० । अकारयं ही नहीं। किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभावीपन होनेसे नेत्र दृश्यको केवल देखता ही है । उसो प्रकार ज्ञान भी स्वयं द्रष्टापन होनेके कारण कर्मसे अत्यन्त भिन्नपना होनेसे निश्चयतः उस कर्मको करने और भोगनेमें असमर्थपना होनेसे न तो कर्मको करता है और न भोगता है । केवल ज्ञानमात्र स्वभावपनेसे कर्मके बन्ध, मोक्ष व उदयको तथा उसकी निर्जराको केबल जानता ही है । भावार्थ- जैसे नेत्र दृश्य पदार्थको दूरसे ही देखता है दृश्यको न करता है और न भोगता है, ऐसे ही शानका स्वभाव दूरसे जाननेका है । इस कारण ज्ञानके कर्तृत्व व भोक्तृत्व नहीं है । कर्तुत्व भोस्तृत्व मानना अमान है। यद्यपि जब तक चारित्रमोहकर्मका उदय है तब तक प्रदर्शन, प्रज्ञान और असमर्थपना होता ही है, सो तब तक याने केवलज्ञान के पहले पूर्णतया ज्ञाता द्रष्टा नहीं कहा जा सकता, तो भी यहाँ यह समझिये कि यदि स्वतंत्र होकर करे और भोगे. तो उसे वास्तबमें कर्ता-भोक्ता कहते हैं । सो जब ही मिथ्यादृष्टिरूप अज्ञानका प्रभाव हुया, तब परम्पले स्वामीप नेना भाव हुना, तब स्वयं ज्ञानी हुमा स्वतंत्रपनेसे तो किसीका कर्ता भोक्ता नहीं । परन्तु अपनी निबलतासे, कर्मके उदयकी बलवतासे जो कार्य होता है उसको परमार्थदृष्टिसे कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता। उसके निमित्तसे जो कुछ नवीन कर्मरज लगता भी है, उसको यहाँ बन्धमें नहीं गिना । मिथ्यात्व ही तो संसार है, मिथ्यात्वके चले जानेके बाद संसार क्या रहा ? समुद्र में बुंदकी क्या गिनती ? दूसरी बात यह भो जानना कि केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही है, परन्तु श्रुतशानी भी शुद्धनयके अवलम्बनमे प्रात्माको शुद्धात्मस्वरूप ही अनुभव करता है। हाँ प्रत्यक्ष और परोक्षका भेद है । सो श्रुतज्ञानीके ज्ञान श्रद्धानकी अपेक्षा तो ज्ञाता द्रष्टापना ही है । चारित्रको अपेक्षा प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना ही घात है, इसके नाश करनेका ज्ञानीके उद्यम है । जब कर्मका अभाव हो जायगा तब साक्षात् यथाख्यात चारित्र होगा, तब केवलज्ञानको प्राप्ति होगी ही। तीसरी बात यहां यह जानना कि सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी मिथ्यात्वके प्रभावको अपेक्षा हो कहते हैं । यदि यह अपेक्षा नहीं ली जा सनसामान्यसे सभी जीव, ज्ञानी हैं और विशेष अपेक्षासे जब तक कुछ भी प्रज्ञान रहे तब तक ज्ञानी नहीं कहा जा सकता, जब तक केवलशान नहीं होता तब तक बारहवां गुणस्थानपर्यंत प्रज्ञानभाव ही कहा गया है। सो यहाँ ज्ञानी