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सर्वविशद्धज्ञानाधिकार करोति न वेदयते च । किंतु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंध मोक्षं वा फर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ।। ये तु कर्तारमात्मानं पश्यति तमसा तताः । सामान्य जनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षतां ।।१६ ।३०। अकारकं प्रथमा एक० ! अवेदयं अवेदक-प्रथमा एक० । जाणइ जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । बंधमोक्खं बन्धमोक्ष-द्वितीया एक० । कम्मुदयं कर्मोदयं-द्वितीया एक० । णिज्जरं निर्जरा-द्वितीया एक. वचन ।। ३२०॥ प्रज्ञानी कहना सम्यक्त्व मिथ्यात्व की ही अपेक्षा जानना ।
अब जो सर्वथा एकांतके प्राशयसे आत्माको कर्ता हो मानते हैं उनका निषेध इस श्लोकमें कहते हैं---ये तु इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष प्रज्ञानांधकारसे आच्छादित हुए प्रात्माको कर्ता मानते हैं, उनका मोक्षको चाहते हुए भी लौकिकजनकी तरह मोक्ष नहीं होता।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी कर्मका अकर्ता व अभोक्ता है । अब इस गाथामें ज्ञानीके उसो अकर्तृत्व व प्रभोक्तृत्वका दृष्टान्तपूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है।
__तथ्यप्रकाश-(१) जैसे नेत्र दृश्यसे अत्यन्त विभक्त है, ऐसे ही ज्ञान कर्मसे अत्यन्त विभक्त है । (२) जैसे नेत्र दृश्यसे जुदा होनेसे दृश्यको करने व भोगनेमें असमर्थ है, ऐसे ही ज्ञान कर्मसे जुदा होनेसे कर्मको करने भोगनेमें असमर्थ है। (३) जैसे दृष्टि (नेत्र) तो मात्र देखती है, वैसे ही ज्ञान तो मात्र जानता है । (४) जैसे नेत्र अग्निशिखाको, अग्नि बढ़नेको, ज्वलन करनेको देखता मात्र है ऐसे ही ज्ञान कर्मबन्धको, मोक्षको, कर्मोदयको, निर्जराको मात्र जानता है । (५) ज्ञान नेत्रकी भौति परका प्रकारक है व अवेदक है।
___सिद्धांत-(१) भान अर्थात् प्रात्मा कर्मका अकारक है। (२) ज्ञान अर्थात प्रात्मा कर्मका अवेदक है।
दृष्टि-१- अकर्तृनय (१९०)। २- अभोक्तृनय (१६२) ।
प्रयोग---अपनेको अपने प्रदेशोंमें ही परिसमाप्त निरखकर कर्मके करने व भोगनेको मिथ्याबुद्धि तजकर कर्मदशाके मात्र जाननहार रहना ।। ३२० ।।
मब आत्माको लोककर्ता मानने वालोंका भी मोक्ष नहीं है, इस अर्थको गाथामें . कहते हैं- [लोकस्य] लौकिक जनोंके मतमें [सुरनारकतिर्थमानुषान् सत्त्वान्] देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य प्राणियोंको [विष्णुः] विष्णु [करोति] करता है ऐसा मन्तव्य है [५] और इसी प्रकार [यदि] यदि [शमणानामपि] श्रमणोंके मतमें भी ऐसा माना जाय कि [षड्य