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समयसार
लोयम्स कुणइ विल सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते । समणाणंपि य अप्पा जइ कुबड़ छविहे काये ॥३२१॥ लोगसमणाणमेयं सिद्धतं जड़ ण दीसह विसेसो। लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पयो कुणइ ॥३२२॥ एवं ण कोवि मोक्खो दीसह लोयसमणाण दोण्हंपि । णिचं कुव्वंताणं सदेवमायासुरे लोए ॥३२३॥
जम कहे विष्णु करता, सुर नारक पशु मनुष्य प्रारणोको । कहें श्रमण भी ऐसा, प्रात्मा षटकायको करता ॥३२॥ लोक श्रमण दोनोंके, इस प्राशयमें दिखे न कुछ अन्तर । लोकके निष्पा करता, श्रमापोंके भि प्रात्मा करता ॥३२२॥ इस तरह लोक श्रमणों, दोनोंके भि नहिं मोक्ष हो सकता।
क्योंकि दोनों समझते, परको इस सृष्टिका कर्ता ॥३२३॥ लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यक मानुषान् सत्त्वान्, श्रमणानामप्यात्मा यदि करोति षड्विधान् कायान् लोकश्रमणानामेक: सिद्धांतो यदि न दृश्यते विशेष:, लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यात्मकः करोति । एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानां न्येषामपि, नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ।।३२३॥
ये स्वात्मानं कर्तारमेव पश्यति ते. लोकोतरिका पपि न लौकिकतामतिवर्तते । लौकिनामसंश-लोय, विण्ड, सुरणारयतिरियमाणुस, सत्त, समण, पि, य, अप्प, जइ, छव्यिह, काय, लोगसमण, एवं, सिद्धत, जई, ण, विसेस, लोय, विष्ह, समण, वि, अप्पर, एवं, ण, क, वि, मोक्ख, धान कायान्] छह कायके जीवोंको [प्रात्मा] प्रात्मा [करोति] करता है तो [लोकश्रमणानां] लोकोंका और यतियोंका [एक सिद्धांतः] एक सिद्धान्त बन गया, [विशेषः न दृश्यते] कुछ अन्तर नहीं रहा । क्योंकि [लोकस्य] लोकके मतमें विष्णुः] विष्णु [करोति] करता है तो श्रिमणानामपि] श्रमणोंके मतमें भी [प्रात्मा करोति] आत्मा करता है [एवं] इस तरह कर्ताके [सदेवमनुजासुरान् ] देव, मनुष्य, असुर सहित [लोकान] लोकोंको [नित्यं कुर्वता] नित्य करते हुए [लोकश्रमणानां द्वय षां प्रपि] लोक और श्रमण दोनोंका ही [कोपि मोक्षः] कोई भी मोक्ष [न दृश्यते] नहीं दिखाई देता ।
तात्पर्य-जो सांसारिक दशावोंको औपाधिक न मानकर प्रात्माको ही उनका स्वतंत्र फर्ता मानते हैं उनके चतुर्गतिका कभी प्रभाव ही नहीं हो सकता, फिर मोक्ष कसे होगा ?