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________________ ५४७ सर्वविशुधनानाधिकार कानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोति इत्यपसिद्धांतस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात्--लौकिकानामिव लोकोतरिका. लोयसमण, दु, पि, णिच्च, सदा, एव, मायासुर, लोय ! बातुसंज्ञकुण करणे, कुव्व करणे, दिस प्रेक्षणे। प्रातिपदिक-लोक, विष्णु, सुरनारकतिर्यड मानुष, सस्व, श्रमण, अपि, आत्मन्, यदि, षड्डिध, काय, लोकश्रमण, एक, सिद्धान्त, यदि, विशेष, ण, लोक, विष्णु, श्रमण, अपि, आत्मन् एवं, न, किम्, अपि, मोक्ष, लोकथमण, दय, अपि, नित्यं, सदा, एव, मनुजासुर, लोक । मूलधातु-डुकृञ करणे, हशिर प्रेक्षणे। पदविवरण--लोयस्स लोकस्य-षष्ठी एकः । कुणड करोति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन किया । विष्टू विष्णुः प्रथमा एक० । सुरणारयतिरियमाणुसे सुरनारकतियंङ मानुषान्-द्वितीया बहु । सत्त्वान्द्वितीया बहु० । समणाणं श्रमणानां-षष्ठी बहु० । पि अपि-अभ्यय । अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । जइ यदि-अव्यय । कुय्यद करोति-वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया। छरिबहे षड्विधे-सप्तमी एक० । कायेसप्तमी एक० । लोगसमणाण लोकश्रमणानां-षष्ठी बहु० ! एयं एवं अव्यय 1 सिद्धत सिद्धान्त:-प्रथमा एकर । जइ यदि-अव्यय । ण न-अव्यय । दीसह दृश्यते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। वित टोकार्थ--जो पुरुष प्रात्माको कर्ता ही मानते हैं वे लोकोत्तर होनेपर भी लौकिकपने को उल्लंघन नहीं करते (छोड़ते), क्योंकि लौकिक जनोंके मतमें तो परमात्मा विष्णु सुर नारक प्रादि शरीरोंको करता है और मुनियोंके मतमें अपना प्रात्मा सुर नारक आदिको करता है । इस प्रकार अन्यथा माननेका सिद्धान्त दोनोंके समान है । इसलिये प्रात्माके नित्य कर्तापनके माननेसे लौकिकजनकी तरह लोकोत्तर मुनियोंका भी मोक्ष नहीं होता । भावार्थजो प्रात्माको इस लोकका कर्ता मानते हैं वे मुनि भी हों तो भी लौकिक जन सरीखे ही हैं, क्योंकि लौकिक जन तो ईश्वरको कर्ता मानते हैं और मुनियोंने भी प्रात्माको कर्ता मान लिया, इस तरह इन दोनोंका मानना समान हुआ । इस कारण जैसे लौकिक जनोंको मोक्ष नहीं है, उसी तरह उन मुनियोंको भी मोक्ष नहीं । जो निरपेक्ष कर्ता होगा वह सदा करता ही रहेगा, तथा वह कार्यके फलको भोगेगा हो, और जो फल भोगेगा उसके मोक्ष कैसा ? अर्थात मोक्ष हो ही नहीं सकता। अब परद्रव्य और प्रात्मतस्त्रका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा काव्यमें कहते हैंनास्ति इत्यादि । अर्थ--परद्रव्य और प्रात्मतत्त्वका कोई सम्बन्ध नहीं है, यों कर्ताकर्मसम्बन्ध का प्रभाव होनेसे मात्माके परद्रव्यका कर्तापन कैसे हो सकता है ? भावार्थ-परद्रव्य और प्रात्माका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्मसम्बन्ध कैसे हो सकता है ? अतः प्रास्माके कर्तापन भी क्यों होगा? प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शान कर्मदशाका अकारक व
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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