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समयसार रणामपि नास्ति मोक्षः ।। नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रध्यात्मतत्वयोः । वर्तृकर्मरवसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ॥२००।। ३२१.३.३ ।। विष्णुः-प्रथमा एक० । समणाणं श्रमणानां-षष्ठी बहु० । वि अपि-अव्यय । अप्पओ आत्मक:-प्रथमा एक० ! कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक 01 एवं न-अव्यय । को कः-प्रथमा एकः । वि अपि अव्यय । मोवखो मोक्ष:-प्र० ए. दीसह दृश्यते-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक कर्मवाच्य क्रिया। लोगसमयाण लोकश्रमणानां-षष्ठी बहु०। दोण्हं येषां-षष्ठी बहु० । अपि-अव्यय । णिच्च नित्यंअव्यय । कुन्वंताणं कुर्वतां-षष्ठी बहु० । एव-अव्यय । मनुजासुरे मनुजासुरान्-द्वितीया बहु० । लोए लोकान-द्वितीया बहुवचन ।। ३२१-३२३ ।। प्रवेदक है, मात्र जाननहार है । अब इन तीन गाथानोंमें यह बताया है कि आत्माको परका कर्ता मानने वाले जन लौकिक जनोंकी भांति मोक्षजाको मीनही प्रत कर समात, मोक्ष तो प्राप्त होगा ही कैसे ?
तथ्यप्रकाश-(१) जो किसी ईश्वरको समस्त परद्रव्योंकी, नरक तिर्यच मनुष्य देव को सृष्टि का कर्ता मानते हैं वे लौकिक कहलाते हैं । (२) जो अपने प्रात्माको परद्रव्योंकी, नरक तियंश्च देव मनुष्यकी, बस स्थावर जीवको सृष्टिका कर्ता मानते हैं वे यहाँ लोकोत्तरिक कहे गये हैं । (३) यदि प्रात्मा अपनी अस स्थावर जीवको सृष्टि करता है तो प्रात्मा तो मित्य है सो सदैव अपनी संसारदृष्टि करता रहेगा सो ही लोकोतरिक पुरुषोंको भी मोक्ष नहीं हो सकता । (४) यदि कोई ईश्वर जीवोंको संसारसृष्टि करता है तो १- ईश्वर सदा संसारसृष्टि करता रहेगा। २- जीवकी सृष्टि पराधीन हो गई सो जीव अपने मोक्षका उपाय न बना सकेगा सो यों लौकिक जनोंको भी मोक्ष नहीं हो सकता । (५) राग-द्वेष-मोहरूपसे परिमन हो कर्तृत्व कहा जाता है उस परिणमनके सतत होनेपर शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानाचरणरूप रत्नत्रया. त्मक मोक्षमार्ग हो ही नहीं सकता अतः मोक्षका प्रभाव होगा। (६) वास्तविकता यह है कि ग्यात्मतत्वका किसी भी परद्रव्यसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, कर्तृकर्मत्वसम्बन्ध भी नहीं है, प्रतः पराधीनता नहीं। (७) स्वाधीन जीव जब कुज्ञानमें चलता है संसारसृष्टि होती है । (८) स्वाधीन जीव जब ज्ञानरूप परिणमता है तब मोक्षमार्गमें चलकर मोक्ष पाता है । (६) रागादि संसारपरिणमन कर्मोपाधिका निमित्त पाकर होनेमे नैमित्तिक है । (१०) नैमित्तिक भाव अस्व. भाव भाव होनेसे ८ जाया करता है ।।
सिद्धान्त—(१) जीव अज्ञानवश अपने रागद्वेषादि भावोंकी सृष्टि करता है । (२) जीव शुद्धात्मज्ञान होनेपर अपने ज्ञानमय परिणामको सृष्टि करता है ।
दृष्टि-१- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- शुद्धनिश्चयनय (४६, ४६ब) ।